शहर है,
बात है,
पानी है, भूख है,
शरीर है, हो तुम।
तुम हो।
टीन कनस्तर है,
पत्थर पलस्तर है,
नींद अंगड़ाई है,
मेंहदी है, काई है,
चमचम चमाचम है,
रोएँगे, मातम है,
मातम है, हो तुम।
तुम हो।
कारें हैं, छींटे हैं,
गारा है, ईंटें हैं,
ताले हैं, जाले हैं,
माँगी मशालें हैं,
कितनी उधारी है,
चाय भी भारी है।
चाय भी भारी है, हो तुम।
तुम हो।
आँगन है,
छाजन है,
कुर्सी है,
बासन है,
टिकटिक है,
झिकझिक है,
रातें बारातें हैं,
उल्लू है, जुगनू है।
जुगनू है, हो तुम।
तुम हो।
[+/-] |
तुम हो... |
[+/-] |
सुखान्त |
वे,
जिनके चेहरे हमें दिखाई नहीं देते,
हमारे शासक हैं।
उन्होंने हमारी रीढ़ से बेसबॉल खेलते हुए
हमें आटा देने का वचन दिया है।
हमें चढ़ती है ठंड,
हमारे अँधेरे घरों में
टेलीविजन पर दिखाया जाता है सूरज
और हमारी जीवनी पर खेले जा रहे
मार्मिक नाटक में हमारा प्रवेश प्रतिबंधित है।
जब जब परदा गिरेगा,
शराब पीने लगेंगे थके हुए अभिनेता
और उठकर चले जाएँगे रसिक दर्शक,
खदेड़े गए जंगलों से
हम बार बार लौटेंगे मंच पर
और अंत बदलेंगे।
यह हँसने जैसा होगा।
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इतना सुख होगा |
जब बारिश होगी,
रेत होगी,
कोई पहाड़ होगा
जहाँ शाम को रेस्तरां में बैठकर
हम सोच रहे होंगे कोई सुखमयी बात,
छुट्टियाँ होंगी,
लौटकर जाने के लिए होगा घर,
स्लीपर में आमने सामने वाली अपर बर्थ पर लेटेंगे हम
और सुबह जल्दी जगेंगे।
इतना सुख होगा
कि हम अघा जाएँगे पगली।
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और ओक भर पानी |
यह जनवरी का महीना है, जिसमें मेरा मन नहीं लगता। मेरा मरने का मन करता है और जीने का भी। बहुत ज़्यादा मन तो दोनों में से किसी का भी नहीं करता। गाँव मुझे एक नई तरह से विकर्षित करने लगे हैं। मुझे शहर की गति से इश्क़ हो गया है। आमिर-अजय-काजोल-जूही जैसा इश्क़ नहीं, उदास वाला इश्क़। मैं शून्य होता जाता हूं। साथ ही परिवार, समाज, देश और प्रेम के प्रति मेरी आस्थाएँ टूटती जाती हैं और यह दिल्ली का असर नहीं है। महानगर चाहे दिन भर तमाचे मारते रहें, लेकिन यहाँ कुछ असंभव नहीं दिखता। यह बड़ी बात है। फ़िलहाल दिल्ली बेकसूर है।
मैं उसे एस एम एस करता हूं कि मैं दिन-ब-दिन ख़त्म होता जाता हूँ। यह एस एम एस पाना उसका सौभाग्य भी है और दुर्भाग्य भी। वह शायद घबरा जाती है। पूछती है, क्यों? क्या हुआ?
कभी कभी मैं किसी मनोचिकित्सक के पास जाने के बारे में भी बहुत गंभीरता से सोचता हूं। तब अमृता प्रीतम याद आती हैं। ख़त्म होते जाने की बात से शिव कुमार बटालवी याद आते हैं, गुरुदत्त भी। हवाई जहाज देखते हुए वह याद आती है। यह वह जानती है।
मैं एक स्कूल की छत पर हूं। नीचे कोई मैडम किसी बच्चे को पीट रही है। सुबह ही है, लेकिन मेरा सोने का मन करता है। बाहर सड़क पर कोई जुलूस निकल रहा है। अख़बार में मायावती के जन्मदिन की तस्वीरें हैं। मुन्नाभाई चुनाव लड़ रहे हैं। मुझे इस बेशर्मी पर हँसी आती है। मुझे घृणा होती है। शुक्र है कि मैं इस राज्य में नहीं रहता।
जब से आँसुओं की कमी से आँखें दुखने लगी हैं (यह वज़ह पढ़ी लिखी डॉक्टरनी ने बताई है), सोते रहने की मेरी इच्छा बढ़ती जा रही है। मुझे अब बच्चे पसन्द नहीं। कोई प्यारी तस्वीर देखकर मुझे प्यार नहीं आता। अपने आप को टटोलते रहने पर कोई भी बची हुई चाह नहीं मिलती। मैं बस एक फ़िल्म बनाना चाहता हूँ, जिसकी कहानी मेरे दिमाग में दूर दूर तक नहीं है।
मैं किसी स्त्री की गोद में सिर रखकर रोना चाहता हूं। मैंने जिन भी लड़कियों से प्रेम किया, सब अच्छी लड़कियाँ थीं जो मेरे लिए बुरी बन गईं। अपनी आँच में बहुत सारे सोने को मैंने कोयला होते देखा है। इसकी सज़ा में मुझे देशनिकाला भी दिया जा सकता है।
माँ, मैं तुमसे भी प्रेम करता हूँ।
जीवन एक लम्बी थकान है। मुझे निराश रहने दिया जाए। मुझे चाँद नहीं, कुछ नींद की गोलियाँ चाहिए और ओक भर पानी।
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फिर उल्लास हो देर तक |
यह झूठ है
कि अभी अभी रोटियाँ तोड़ते हुए हम
रोते रहे हैं।
यह झूठ का दिन है
जिसमें इस झूठे कमरे में
बहुत बेअदबी से हमारी
झूठी मरखनी लाशें पड़ी हैं।
जीने की सब वज़हें ख़त्म हो चुकी हैं
और ख़त्म न भी हुई हों,
तो भी हम उन्हें नहीं माँगते।
हमें चाहिए
कुछ स्त्रियाँ, थोड़ी सी शराब और बरतानिया हुकूमत से आज़ादी।
यह दो हज़ार नौ है।
हमारी दुनिया हमसे नफ़रत करती है,
थूकते हैं हम भी अपनी दुनिया पर
और ऐसे में मुझे तुम्हारी याद
मिर्गी के दौरों की तरह आती है।
उनसे बस थोड़ी कम।
यह आखिरी बार होगा
कि हम प्रेम करेंगे और उपमाएँ देंगे।
इसके बाद बातें हों
नाटे लड़कों और काली लड़कियों के पक्ष में,
फिर दुनिया आए
और दुनियादारी।
फिर उल्लास हो देर तक।
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यह तुम्हें सुनाई देता है तो तुम्हें डरना चाहिए |
घुटने पर भी एक चोट है। रात को बिस्तर पर लेटते ही लगता है कि दिनभर किसी के साथ मारपीट करता रहा हूं। यह ख़याल इतना विश्वसनीय होता है कि किसी दिन पुलिस वाले मुझे पकड़ने आए तो मैं बिना कारण पूछे कपड़े बदलकर उनके साथ चल दूंगा। जेल एक औषधि की तरह होगा, जहाँ से मैं पूरा सामान्य या पूरा असामान्य होकर लौटना चाहूंगा। जेल में घड़ी और फ़ोन और इंतज़ार और दफ़्तर भी नहीं होंगे। सिर्फ़ कराहते रहने की एक तीव्र इच्छा बचेगी और उसे बहुत आसानी से पूरा किया जा सकेगा।
ज़िन्दगी सुन्दर है – यह एक आस्था है। नास्तिक होना संसार की सबसे आनंददायी प्रक्रियाओं में से एक है और बातों के बीच की लम्बी छलाँगें उसी विद्रोह का हिस्सा हैं। बेशर्म होना, बाग़ी होने की तरह एक सकारात्मक विचार है। तुम मुझे जितना छलती हो, मैं आकाश के उतना करीब पहुँचता हूं। अहंकार और गर्व के बीच एक पतली सी रेखा है, जिस पर बैठकर ईश्वरीय न्याय को ठोकर मारते हुए मैं घोषित करता हूं कि तुम्हें क्षमा नहीं किया जा सकता। यह तुम्हें सुनाई देता है तो तुम्हें डरना चाहिए।
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मैं घर जाना चाहता हूं |
रसोई में टप टप पानी टपकता रहता है। मेरी दादी बताती थी कि यहाँ पहले दूर तक नदी के खेत होते थे। मुझे लगता है कि इसी तरह कहीं मछुआरों के खेत भी होते होंगे। न जाने क्यों, नदी का नाम लेते ही मछुआरे याद आते हैं जबकि ऐसा समुद्र के नाम के साथ होना चाहिए। मैंने कभी समुद्र भी नहीं देखा। मुझे लगता है कि मैं समुद्र देखे बिना ही मरूंगा और यह डर की तरह नहीं लगता। समुद्र को देखने की कीमत पर कभी नहीं मरना, यदि ऐसा हो जाए...यह विचार मुझे बहुत डराता है। माँ मेरे पागल होने से पहले मेरी शादी करना चाहती है। मैं मानता हूं कि विवाह में संभावनाएँ हैं, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा, पागलपन मुझे लुभाता है।
सब कुछ मेरी नज़र की तरह खोता जाता है। मैं कबूतरों के बीच में किसी की फ़ोटो देखता हूं और मुझे ईर्ष्या होती है। मैं कुछ दिन के लिए ऑटो रिक्शा चलाना चाहता हूं, कुछ दिन के लिए स्टेशन पर किताबों की दुकान खोलना चाहता हूं, कुछ दिन के लिए स्त्री होना चाहता हूं, कुछ दिन के लिए मुसलमान, कुछ दिन पतंग उड़ाना सीखना चाहता हूं, कुछ दिन थियेटर करना चाहता हूं, कुछ दिन लगातार सोना चाहता हूं, नेपाल भी जाना चाहता हूं, पटियाला भी। मैं किसी वेश्या से प्रेम करके कष्ट और प्रेम पाना चाहता हूं। मैं दुनिया की सबसे बुरी गाली किसी को देना चाहता हूं।
ओवरकोट वाला आदमी लौट आया है। वह चने लेकर आया है और उन्हें चबाते हुए मुस्कुरा रहा है। मुस्कुराना अच्छी परंपरा है। सामने दो बहनें अपने अपने पतियों के अपमान पर झगड़ रही हैं और तब भी, जब यह स्टेशन नहीं - जैसा उन सबको यकीन है जो यहाँ हैं - मेरा घर है, मैं उन्हें नहीं रोक पाता।
ऐसा डर लगता है कि हम जब आखिरी ट्रेन से घर लौटेंगे तो हमारा शहर युद्ध या दंगे में उजड़ चुका होगा। लम्बी शांति, जिसमें दूर कहीं प्रेशर कुकर की सीटी बजती है, मुझे बचपन की याद दिलाती है। मेरी रस्सियाँ खोलो, मैं घर जाना चाहता हूं।
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हँसती हुई जुगनी |
बहुत सर्दी लगती थी तो भी कुछ ओढ़ने का मन नहीं होता था। मन शराबी सा था और मुझे शराब पीना नहीं आता था। सुबह सुबह सूरज उंगली छुड़ाकर छिपने के लिए भागता था और फिर न जाने क्यों, मोड़ से लौट आता था। वह एक सुन्दर लड़की थी जिससे प्रेम करते हुए ठीक ठीक पता भी नहीं लग पाता था कि प्रेम उससे है या उसकी सुन्दरता से? फिर भी रोना आता था। सुन्दर होना अभिशप्त वरदान था। वैसे उसके होठों के ऊपर हल्का हल्का रोयाँ था, जो मुझे लगता था कि नहीं होना चाहिए। वह उबासी लेती थी तो उसका शरीर लय में नहीं रहता था। वह स्लीवलेस नहीं पहनती थी। मैं उसकी बगलें देखना चाहता था। वह बहुत हँसती थी, इसलिए मुझे ऐसा लगता था कि उसकी आत्मा हमेशा उसके हॉस्टल में छूट जाती होगी। मुझे अपने परफ़ेक्शनिस्ट होने की बदगुमानी से बेहद चिढ़ थी।
हम दोनों के बीच में मेरा आत्मसम्मान था जो चिथड़े चिथड़े कर दिया गया था। और मैंने तय किया कि सुन्दर लड़कियों से प्यार नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा तय करते हुए गूगल पर खोजकर देखे गए कैटरीना कैफ़ और प्रियंका चोपड़ा के दर्जनों चित्र भी मेरे दिमाग में घूमते रहे।
स्त्री मेरे मन में शरीर होती जाती थी। मैं घंटों फ़ोन लेकर बैठा रहता था और एक ही बात सोचता था...किसे फ़ोन करूं कि कुछ आराम आए? ए से शुरु करके एक एक नम्बर और नाम देखता हुआ बार बार ज़ैड तक पहुँच जाता था। मेरे मोबाइल में दो सौ छियानवे नम्बर थे और एक भी ऐसा नहीं था जिससे बात करके उस बेचैनी के चले जाने की उम्मीद हो। क्या मैं किसी और दुनिया में किसी और का फ़ोन लेकर बैठा रहता था? क्या किसी भी दुनिया को अपने किसी अवांछित व्यक्ति से भी इतना दूर हो जाने का, इतना क्रूर हो जाने का हक़ था?
यह बहुत भयावह था कि आप दिन भर रोएँ और शाम को सड़क पर टहलने निकलें तो कोई भी न पूछे कि क्या हुआ? कुत्ता भी नहीं। कूड़ादान भी नहीं।
यह इस बात को चार बार लिखे जाने जितना त्रासद था।
यह याद आता था कि शायद किसी ने कभी कहा तो था कि परेशानी हो या न भी हो, किसी भी वक़्त मुझे फ़ोन कर लेना। लेकिन किसने कहा था, यह याद नहीं आता था। मैं दीवारों पर सिर पटकता था। रात रोज़ हो जाती थी। मेरा एकांत मुझे महानता का अहसास करवाता था। मेरा एकांत मुझे मारे जाता था। लोग अलार्म भरते थे और सो जाते थे।
मैं एक सैकेंड हैंड बंदूक खरीदना चाहता था और ठीक ठीक दाम में चार छ: गोलियां। मैं उसकी आँखों के बिल्कुल ऊपर, माथे के बीच में बनते गोल गोल भँवर में गोली मारना चाहता था। मैं उससे इतना प्यार करता था कि उसे अपने सामने मरते हुए देखे बिना जी नहीं सकता था। प्रेम मुझे हिंसक बनाता था।
कुत्ते भौंकते थे। ‘ओए लकी लकी ओए’ में एक गाना बजता था...
जुगनी चढ़दी एसी कार
जुगनी रहंदी शीशे पार
जुगनी मोहमोहणी नार
ओदी कोठी सैक्टर चार।
जुगनी हँसदी वे हँसदी...
...और जुगनी ठठाकर हँसती थी। हॉल में ठहाके गूँजते थे और मुझे लगता था कि पूरा देश रोता है।
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तुम्हारा प्रायश्चित |
छत पर धूप को सेकना
तुम्हें झुठलाने जैसा है,
तुम्हें सच मानना है आत्महत्या जैसा।
तुम्हारा आँखें बन्द कर लेना
डूब जाने जैसा नहीं,
रात जैसा है,
तुम्हारा देर तक अलविदा के पत्थर पर खड़े रहना
तुम जैसा नहीं,
सड़क या दुकान या शहर जैसा है।
जिस तरह फूटते हैं गुब्बारे,
शाम होती है,
पेड़ देते हैं फल,
किताबें खो जाती हैं,
रेडियो बजता है,
दरवाजों पर ताले लगे होते हैं,
फ़ोन मिलते हैं स्विच्ड ऑफ़,
साँस नहीं आती,
सोमवार आते हैं,
इसी तरह किसी दिन
घर से निकलकर चलता चला जाऊँगा मैं
और कभी नहीं लौटूंगा।
मेरा इंतज़ार किया जाए।
यह तुम्हारा प्रायश्चित हो।
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तीसरा समय जान ले लेगा हमारी |
तुम्हारी आत्मा में छेद हो गए हैं
और तुम बोलती हो तो
तुम्हारा बोलना डूब जाता है
(और यह प्रशंसा नहीं है)।
तुम्हारी आँखों में तमंचे हैं
जैसे तुम्हें झुटपुटे में लूटना है किसी को
आम के घने पेड़ों वाली सड़क पर।
तुम लूटती हो तो
कोई हल्का सा गीत गुनगुनाने का मन करता है।
हल्के गीतों ने बचाकर रखा है
बार बार किया जा सकने वाला प्रेम
और गुनगुनाना।
आओ कम्बल ओढ़कर
कम-ज़-कम एक तस्वीर ही खिंचवा लें
कि अपनी (माने अपनी अपनी) संतानों को गर्व से बता पाएँ हम
अपने अँधेरों को साझा करना,
एक खराब कविता लिखना
और रात के खाने का बंक मारकर
प्यार करना।
तुम नहीं हो तो
मेरे कलेजे में है एक डर
एक फ़ुटपाथी शौर्य
और एक सुस्ताती उदासीनता।
मैं बुरा नहीं हूं,
लेकिन मेरी भूख में मेरा पूरा संसार है
जिसे गोरी लड़कियों और मैकडोनाल्डीय बर्गरों ने बरगला दिया है।
डर को टॉफ़ी देकर बहकाया नहीं जा सकता,
डर चाहता है चाँद के चाँदी बन जाने की सुरक्षा,
डर निराकार है,
डर शाश्वत है,
डर ही है ईश्वर,
आसमान में है लम्बी आग,
तुम खो गई हो,
प्रेम के बिना जीना होता जा रहा है आसान,
उम्मीद पर टिकी है दुनिया
और यह दुनिया का सबसे ज़्यादा नाउम्मीदी भरा ख़याल है।
प्रेम के बिना जीना होता जा रहा है आसान!
कैसे भला?
सब बातें राज़ की हैं
इसलिए सब राज़दार ख़त्म किए जा चुके हैं।
धुंध में तसले में बैठकर नहाता है सूरज,
तुम्हें भीगे बालों में
देर तक छूटती रहती है कँपकँपी।
एक बात है
जिसे पूरी करने के लिए
फ़ोन काट देना बहुत ज़रूरी है,
एक बात है
जिसमें बसती है दुनिया की सारी ऑक्सीज़न।
सुनो,
यह आदमकद शीशों,
ऊबे हुए लोगों,
आलू के परांठों,
तिलिस्मी दरवाज़ों
और टीवी की दुनिया है।
यह एक दूसरा ही समय है
जब हमारी माँएं
हमारी प्रेमिकाओं की तरह हमें भूल गई हैं।
तीसरा समय जान ले लेगा हमारी।