- उन्होंने यह कहने को कहा है कि वे आपसे कभी.. कभी नहीं मिलेंगी।
उन्होंने दरवाज़ा खोला ही था, एक आधा बिस्किट उनके हाथ में था और मैं गले नहीं लगा पहले, ना ही छुआ उन्हें और यह कहा मैंने।
मुझे लगा था कि वे गिर जाएँगे। पर इसके अलावा कोई और तरीका नहीं था। क्या होता जो मैं अन्दर जाता, वे हँसते कि इस बार तो तुम मंगलवार को ही आ गए हो और मैं कहता कि हँसो मत पिता, तुम्हारी पत्नी अब तुम्हारी पत्नी नहीं है।
पर वे गिरे नहीं। देखते रहे मुझे। और फिर बोले कि क्या मैं मज़ाक़ कर रहा हूं? मैं यहाँ मई की गर्मी में दोपहर के साढ़े तीन बजे मज़ाक़ करने आऊंगा? मैं पसीने से भीगा हुआ था और सोच रहा था कि क्या वे फ़्रिज में पानी रखने लगे होंगे अब, और अब कौनसी बात पर पहुँचकर मुझे पानी माँगना चाहिए।
- अंदर आ जाओ..
- मुझे काम है थोड़ा.. यहाँ कोर्ट में।
वे रुके ज़रा।
- तुम भी नहीं मिलोगे इसके बाद?
- मैं...मैं तो यहीं हूं.. मैं क्यों नहीं मिलूंगा?
फिर वे चुप रहे। उन्होंने मुड़कर अपने घर की तरफ़ देखा जैसे वह बदल गया हो इस एक मिनट में, या अंदर चोर घुसे हुए हों और वे देख रहे हों कि कितना सामान बचा है। और वे गिड़गिड़ाने को हुए जब, तब मुझे अफ़सोस हुआ अपने पैदा होने पर, और इस बेवकूफ़ी पर कि क्यों नहीं मैंने एक एसएमएस कर दिया, जैसा माँ ने कहा था मुझे।
मैं एक बार गले लगा उनके, पीठ थपथपाई और कहा कि ज़िंदगी चलती रहती है। फिर मैंने कहा कि शनिवार को आऊँगा, या फ़ोन तो करूँगा कम से कम, और वे अपना ख़याल रखें, बाहर ना निकलें गर्मी में।
पानी माँगने तक बात नहीं पहुँची। मैं चला आया।
ग्यारह साढ़े ग्यारह उसे फ़ोन आया उनका। उन्होंने पी रखी थी।
- वह फ़ोन नहीं उठा रही मेरा। तुम प्लीज़ फ़ोन कर दोगे एक बार उसको, एक बार बात कर ले मुझसे।
मैंने फ़ोन काट दिया। इसी से मुझे कोफ़्त होती थी, गिड़गिड़ाने से।
मैं और नेहा पिक्चर देखने गए थे, जब वे मुझे दिखे एक ढाबे के बाहर। एक ख़ाकी सी शर्ट होती थी उनकी दस साल पहले की, जाने किस कबाड़ से निकालकर पहनी थी उन्होंने, और उसके साथ काली पैंट। वे घूम-घूमकर सिगरेट माँग रहे थे हर किसी से और उनके हाथ में कुछ लाल पर्चे थे। मुझे लगा कि उन्होंने कोई पार्टी जॉइन कर ली है, जो वे हमेशा से चाहते भी थे।
ख़ैर, ज़िंदगियां आसान नहीं होती। कम से
कम अपनी वाली के लिए तो मैं तैयार नहीं था। नेहा का ग़ुस्सा एक दिन मुझ पर फूटा।
मैं उसे उन तमाम चीज़ों से नहीं बचा पाया था, जिनसे मेरा फ़र्ज़ था कि बचाऊँ। उसने
कहा कि मैंने उसे धोखा दिया है। धोखा क्या है, मैंने पूछना ज़रूरी नहीं समझा और
इसलिए सफ़ाई देना भी, और बाहर निकल आया। शाम तक वह कुछ बेहतर हो गई थी। हमने अपने
होने वाले बच्चे के बारे में भी बात की। उसे प्रेगनेंट हुए 3 या 4 महीने बीते थे।
शाम को उसने कुछ बनाया था जिसका नाम मैं भूल गया हूं, ख़ुशबू याद है। फिर पापा का
फ़ोन आया था कि आ जाऊँ।
सच कहूँ तो उनकी बड़ी
उदास सी कहानी थी और मैं सुन भी लेता तो क्या फ़र्क़ पड़ता। लेकिन फ़र्ज़ था तो
चला गया। वे मेरे साथ शराब पीना चाहते थे। रम थी उनके पास, उन्होंने कुछ अजीब से
गाने भी चलाए।
- आपकी आँखें कैसी हैं अब?
- हम लोग एक किस्म की क्रांति कर रहे हैं। जो काम बहुत
से दूसरे लोगों को करना था, वो नहीं हो पाया है इसलिए हम कर रहे हैं।
मैंने कहा कि मैंने
उन्हें जुलूस में पर्चे बाँटते देखा था। उनके चेहरे पर परेशानी की एक लकीर आई।
उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया कि ऐसा कुछ उन्होंने कभी किया था।
- आप दुकान ही क्यों नहीं सम्भाल लेते, उसे साफ़
करवाओ, एक नया काउंटर ले लो और एक लड़का रख लो। मैं ढूँढ देता हूँ।
उन्होंने कहा कि वे माँ
से एक बार बात करना चाहते हैं। इससे कोफ़्त होती थी यार। वे बच्चे थे क्या? माँ
शादी करके किसी और आदमी के साथ रह रही है, सुकून से है, एक बार केरल भी घूम आई है,
आप जियो ना अपनी ज़िंदगी और माँ को भी जीने दो। और वो औरत आपको छोड़ गई है, आगे
निकल गई है, ६० की उमर में भी आपको समझ नहीं आ रहा तो कभी नहीं आएगा।
उन्होंने ज़्यादा पी ली
थी। जब तक वे सो नहीं गए, मैं बैठा रहा। फिर निकल आया। अगले कई हफ़्तों मैंने
कोशिश की कि जा नहीं पाऊँ तो उनकी ज़रूरत का सामान तो भिजवाता रहूँ। मैंने खाना
बनाने के लिए एक लड़का उनके पास भेजा जिसे उन्होंने गालियाँ देकर वापस भगा दिया।
जब भी याद आता था, मैं उनसे बिना पूछे उनके ऐड्रेस पर खाना ऑर्डर कर देता था। उसके
लिए उन्होंने न शुक्रिया कहा कभी, न ही मना किया।
सब कुछ नॉर्मल सा ही चल
रहा था कि एक दिन माँ का रोते हुए फ़ोन आया। पापा को माँ के घर पर पकड़ लिया गया
था और उन्होंने पुलिस कम्प्लेन कर दी थी। जब तक मैं पहुँचा, पुलिस आ चुकी थी। पता
चला कि वे उसके घर के अंदर कूदकर माँ के बेडरूम में घुस आए थे। माँ उनके रोने से
चौंककर जगी और घबरा गई। वे उनके सामने गिड़गिड़ाने लगे। माँ चिल्लाई। गोविंद घर पर
नहीं था। सफ़ाई करने वाली लड़की भागकर आई। तब तक पापा ने माँ को लगभग बाँहों में
ले लिया था। जैसे-तैसे छुड़ाया गया।
मैंने और पुलिस ने पूछा
तो बाँहों में लेने वाली बात से वे इनकार करते रहे, बाक़ी सब उन्होंने मान लिया।
पुलिस वाला ठीक ही आदमी था। दस हज़ार में मान गया। बाद में माँ ने पापा के ख़िलाफ़
रीस्ट्रेनिंग ऑर्डर ले लिया।
घर में घुस आने वाली उस
रात मैं उन्हें अपनी गाड़ी में वापस उनके घर छोड़कर आया। उन्होंने बताया कि इससे
पहले भी वे एक दिन माँ के घर में घुस गए थे, लेकिन तब कोई घर पे नहीं था।
अपनी शक्ल देखो यार,
क्या-क्या नहीं कर सकते आप, और क्या कर रहे हो पापा?
उन्होंने कहा कि वे
मेरे साथ बाहर कहीं जाना चाहते हैं। और कोई दिन होते तो मैं चला भी जाता लेकिन
मेरी ज़िंदगी में भी रायता फैला हुआ था। बस मैं किसी को बताता नहीं था। नेहा कुछ
दिन ठीक रही और फिर एक दिन अचानक अपना सामान पैक करने लगी।
- तुम मुझे धोखा दे रहे हो।
- देखो, और चाहे सौ ऐब मुझमें हों, पर मैंने धोखा आज
तक किसी को नहीं दिया है। तुम बहाना ढूँढ रही हो। तुम्हें जाना हो तो चली जाओ।
रास्ते में मत खड़ी रहो।
वो किस चीज़ को धोखा
बोलती थी, ये न मैंने पूछा, न उसने बताया। मुझे दरअसल लगता था कि वो रुकना ही
चाहती थी। मैं थोड़ा भी मना लेता तो रुक जाती पर मेरा हो गया था यार। नेहा से मैं
प्यार करता था, इसमें कोई दोराय है नहीं, लेकिन प्यार करने की भी एक तमीज़ होती
है। आदमी कुत्ता तो नहीं बन सकता!
नेहा चली गई। एक शाम
पापा का फ़ोन आया। उनकी आवाज़ काँप रही थी।
- पाँच हज़ार रुपए दे सकते हो क्या तुम अभी?
- क्या हुआ पापा?
- संगठन को ज़रूरत है।
- पर संगठन के लिए आप.. इतना घबराए हुए क्यों हो? तबियत ठीक है आपकी?
- तू आएगा क्या?
पहले तो मैंने पैसे
ट्रांसफ़र कर दिए। फिर थोड़ी देर बाद मुझे लगा कि चले ही जाना चाहिए। मुझे लगा कि
नशे में होंगे। पर तब तक उन्होंने पीना शुरू नहीं किया था। उन्होंने घुसते ही पूछा कि क्या ऐसा मुमकिन है कि मैं हर शुक्रवार
उनके पास आ जाऊँ और फिर इतवार रात वापस अपने घर लौट जाऊँ। वे अजीब तरह से हंस रहे
थे, डरी हुई सी हँसी। मैंने कहा कि यह तो मुश्किल है, जो कि मुश्किल था भी।
- आपका कोई दोस्त नहीं है क्या?
- है ना। संगठन के सब लोग दोस्त हैं।
- तो वे आ जाते होंगे ना कभी कभी?
- संगठन टूट रहा है बेटा।
उन्होंने ऐसे कहा जैसे
उसके साथ वे टूट रहे हों, जैसे दुनिया की दो तरफ़ की ज़मीनों के बीच का इकलौता पुल
टूट रहा हो। पहली बार मुझे इतनी घबराहट सी हुई।
- अगर कुछ पैसे देकर संगठन चलता रह सकता हो तो मैं और
पैसे भेज देता हूँ पापा।
पर वे शांत रहे।
उन्होंने दो गिलासों में रम डाल दी थी और हम पीने लगे थे। १३ तारीख़ थी, मुझे
अच्छी तरह याद है। पहले दो पैग तक हमने कोई ज़्यादा बात नहीं की। तीसरे तक आते आते
वे अजीब सी तरह से कराहने लगे थे। मुझे लगा कि शायद कोई दौरा पड़ रहा है, पर
उन्होंने कहा कि नहीं, मैं ठीक हूँ। फिर हमारे बीच थोड़ी चुप्पी रही। मैंने उनसे
कहा कि यह बाहर वाला पंखा अब बहुत पुराना हो गया है, मैं कल किसी को भेजकर बदलवा
दूँगा। उन्होंने मेरी तरफ़ देखा, फिर पंखे की तरफ़। फिर अचानक बोले कि ग़लती उनकी
नहीं थी, और थी भी। तब भी वे कराह रहे थे।
- कहीं दर्द है क्या?
- तू मेरी बात क्यों नहीं सुन रहा है?
- सुन रहा हूँ ना। बोलो।
- बताएगा ना, मेरी ग़लती थी क्या?
मुझे पहले पता होता कि
वे क्या बताने वाले हैं, तो मैं सीधे बोल देता कि आप अपनी ज़िंदगी अपने तक ही रखो,
मैं कुछ नहीं बताऊँगा। लेकिन मैं बेवक़ूफ़ था और मैंने पूछा कि क्या हुआ?
- प्रकाश सिंह को तू जानता है ना?
मुझे तुरंत याद नहीं
आया।
- जिसकी गैराज़ पे मैं काम करता था, तू छोटा था जब।
एक सरदार का चेहरा मेरे
ज़ेहन में उभरा। पापा के साथ कालिख से सने हुए मेरे हाथ। उसने मुझे अंग्रेज़ी में
अपना नाम लिखना सिखाया था। मुझे उसकी शवयात्रा भी याद आई। पर तब पापा उसकी दुकान
पर काम नहीं करते थे।
- हाँ याद आया।
- उसने..तेरी माँ ने बोला था कि उसने .. ज़बरदस्ती की थी..
बीच में रुके वे।
- ..उसका रेप किया था।
मेरे गले में एक अंगारा
सा अटक गया। मैंने उनकी तरफ़ देखा। वे आँखें फाड़े मुझे देख रहे थे। एक भयानक सी
चुप्पी रही। मैंने कुछ बोलने की कोशिश की पर बोला नहीं गया। मैं खड़ा हो गया।
- मैंने किसी को नहीं बताया कभी।
- पर आपने किया क्या?
मैं बहुत ज़ोर से
चिल्लाया। वे सहम गए और सर झुकाकर बैठ गए।
- मैंने काम छोड़ दिया। ६ महीने तक बिना काम के रहा,
फिर एक दूसरी नौकरी मिल गई। कम थी तनख़्वाह, पर वही करता रहा।
- प्रकाश सिंह का क्या किया आपने?
- मैं क्या करता यार? भगवान थोड़े ही था मैं?
-
उनकी आवाज़ काँप रही
थी। दोनों गिलास मैंने उठाए और फेंककर मारे। और अपना सर अपने हाथों में पकड़ लिया
और मेरे जी में आया कि यह दीवार तोड़ दूँ। मैं बेचैनी से इधर से उधर, उधर से इधर
चल रहा था।
- तू क्या करता, मेरी जगह होता तो?
- उसे मार डालता।
वे मेरी तरफ़ देखते रहे।
फिर बाहर की तरफ़ देखने लगे।
- मैं पुलिस में कम्पलेंट कराना चाहता था पर तेरी माँ
ने मना कर दिया। उसको भरोसा नहीं था पुलिस पे। बोली कि सबको पता और चल जाएगा।
फिर एक चुप्पी रही।
- आपने कुछ भी नहीं कहा उस
आदमी को?
वे चुप मुझे देखते रहे, फिर ना में सर हिला दिया।
- मैंने ग़लत किया क्या?
मैंने कहा कि अपना सही
ग़लत आप ख़ुद देखो। एक पहाड़ सा मेरे अंदर जा धँसा था। मैं अंदर तक तहस-नहस था और
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ!
- उसने मुझे कभी माफ़ नहीं किया।
- मुझे नहीं लेना देना यार इससे। आपको माफ़ी क्यों
चाहिए? क्या करोगे आप माफ़ी का?
मैं फिर से फट पड़ा था।
मेरी साँसें फूल रही थीं। मैं निकला और चला आया।
उसके बाद हमने इस बारे
में बात नहीं की। दो-तीन दिन बाद मैं माँ से मिलने ज़रूर गया था। माँ ने मेरे लिए
पराँठे बनाए थे और हमने इस बारे में बात की कि आजकल अदरक अच्छा नहीं आ रहा है, कम
से कम शहरों में तो नहीं। नेहा एक ही महीने में लौट आई थी। उसका पेट बढ़ने लगा था।
उतनी ख़ूबसूरत नहीं थी उन दिनों, पर मुझे भी लगा कि ठीक है, एक फ़ेज़ ही तो है।
उसे देखते हुए कभी-कभी बहुत गहरा सा प्यार उमड़ आता था। एक दिन जूतों की एक दुकान
के बाहर मैंने सड़क पर ही उसे चूम लिया। सोते हुए उसकी उंगलियां मेरी हथेली पर
रहती थीं।
बारिशें तब शुरू होने
ही वाली थीं, जब एक दिन पापा एक दोस्त के घर की छत से नीचे कूद गए। उससे पहले दो
हफ़्ते से वे मुझसे मिलना चाह रहे थे। पर न तो मैं तैयार था, न ही मन हुआ मेरा।
माँ उस दिन गुजरात में थी। पापा को हमने जला दिया था, जब तक वो लौटी।
आप क्या कहना चाहेंगे? (Click here if you are not on Facebook)
जो दिल में आए, कहें।
Post a Comment