यह तुम्हें सुनाई देता है तो तुम्हें डरना चाहिए

रसोई में नदी है। अख़बार का एक पन्ना रसोई में फिसल गया है। मेरे पलंग की चादर पर हाथी बने हुए हैं, जिनके दाँत भूरे हैं, पर सही सलामत हैं। पहले तो नदी के किनारे, जहाँ से गुजरकर हाथी पानी पीने जाते थे, एक दर्जी की दुकान होती थी। वह मेरी बचपन की फैंटेसी की तरह है। मैं उसे नहीं देख पाया। पुराने सपने रह रहकर ऐसे याद आते हैं, जैसे आखिरी बार आ रहे हों। ऐसे क्षणों में थकान सी महसूस होती है। आँखें दुखती हैं। डॉक्टर कहता है कि तनाव से तुम्हारी आँखें सूख गई हैं। मेरे मन में न जाने क्यों, डॉक्टर के लिए ढेर सारा स्नेह उमड़ता है। डॉक्टर एक सपना है। ऐसे कई सपने हैं।
घुटने पर भी एक चोट है। रात को बिस्तर पर लेटते ही लगता है कि दिनभर किसी के साथ मारपीट करता रहा हूं। यह ख़याल इतना विश्वसनीय होता है कि किसी दिन पुलिस वाले मुझे पकड़ने आए तो मैं बिना कारण पूछे कपड़े बदलकर उनके साथ चल दूंगा। जेल एक औषधि की तरह होगा, जहाँ से मैं पूरा सामान्य या पूरा असामान्य होकर लौटना चाहूंगा। जेल में घड़ी और फ़ोन और इंतज़ार और दफ़्तर भी नहीं होंगे। सिर्फ़ कराहते रहने की एक तीव्र इच्छा बचेगी और उसे बहुत आसानी से पूरा किया जा सकेगा।
ज़िन्दगी सुन्दर है – यह एक आस्था है। नास्तिक होना संसार की सबसे आनंददायी प्रक्रियाओं में से एक है और बातों के बीच की लम्बी छलाँगें उसी विद्रोह का हिस्सा हैं। बेशर्म होना, बाग़ी होने की तरह एक सकारात्मक विचार है। तुम मुझे जितना छलती हो, मैं आकाश के उतना करीब पहुँचता हूं। अहंकार और गर्व के बीच एक पतली सी रेखा है, जिस पर बैठकर ईश्वरीय न्याय को ठोकर मारते हुए मैं घोषित करता हूं कि तुम्हें क्षमा नहीं किया जा सकता। यह तुम्हें सुनाई देता है तो तुम्हें डरना चाहिए।



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9 पाठकों का कहना है :

सुशील छौक्कर said...

बहुत उम्दा। कई बार पढ्ने का मन करता हैं।
अहंकार और गर्व के बीच एक पतली सी रेखा है। पर गौरव जी यह पतली सी रेखा दिखती कहाँ है लोगों को।

Vinay said...

बधाई, कलम क जादू यूँ ही बिखरते रहो

---मेरा पृष्ठ
चाँद, बादल और शाम

प्रशांत मलिक said...

vaah
4 baar to padh li hai..

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

गौरव जी !


आप तो बहुत ही दिलचस्प इंसान हैं...स्नेही भी...
मैं आपको नियमित रूप से पढ़ा करूंगा,आपके यहाँ तो बहुत ही उम्दा सृजन के लिए ज़मीन तैयार हो रही है,आप अच्छे रचनाकार होने वाले हैं
.

गौरव सोलंकी said...

सुशील जी, विनय जी, प्रशांत भाई और द्विज जी, आप सबका बहुत बहुत आभार!

Nikhil said...

यह ख़याल इतना विश्वसनीय होता है कि किसी दिन पुलिस वाले मुझे पकड़ने आए तो मैं बिना कारण पूछे कपड़े बदलकर उनके साथ चल दूंगा।

वाह-आह...

Gaurav Ahuja said...

रात को बिस्तर पर लेटते ही लगता है कि दिनभर किसी के साथ मारपीट करता रहा हूं। यह ख़याल इतना विश्वसनीय होता है कि किसी दिन पुलिस वाले मुझे पकड़ने आए तो मैं बिना कारण पूछे कपड़े बदलकर उनके साथ चल दूंगा।

bahut achcha....

अजित वडनेरकर said...

बढ़िया...

Pooja Prasad said...

इस पोस्ट से लेकर ऊपर की सभी पोस्ट एक साथ पढ़ीं और याद आ गया अज्ञेय का नॉवेल- शेखर एक जीवनी. आप एकदम गजब लिखते हैं गौरव जी.