ताकि तुम्हे जंगल ना रहे याद

भले ही तुमने अपनी छत चुनी हो, अपना कूदना
जैसे हमारी ज़मीन ने हमें चुना है इन मकानों में
जैसे आसमान स्कूल नहीं
कि तुम्हें आदत है तो बुला लेगा अन्दर
और तुम्हारी सोहबत कैसे भी लड़कों से हो,
वे बनाते हों अपने घरों में चाँद, चाहे शक्कर,
वे तुम्हें कूदना सिखाएँगे तो ख़ुद भूल जाएँगे
कोई जादूगरी की तरक़ीब होगी ज़िन्दगी
जिसमें तुम दही जमने के इंतज़ार में नहीं खा रहे खाना
जा रहे जाना

एक उम्मीद के पैताने सिकुड़कर बैठे
कब तक करोगे उसके जागने का इंतज़ार
जबकि उम्मीद कोई अच्छी बच्ची नहीं
और दीवाने अपनी मर्ज़ी से सोया, जगा करते हैं

दीवारें नहीं फटेंगी,
तुम्हारा टूटना
किसी बैंक के खाते, किसी सुन्दर हाथ,
किसी सामूहिक सपने का टूटना नहीं है मेरी जान
रोना इतना आसान शब्द नहीं,
यह एक नदी की आराधना है,
उम्मीद टूटने और फिर फिर पालने के बीच का एक पक्का पुल,
यह फ़ुर्सत की माँ है जो छोड़कर काम पर नहीं जाएगी, बैठी रहेगी सिरहाने
सिर झुकाओ, बैठो मेज पर या लेटो स्थिर, रुलाई को आने दो
यह शहर के जंगल में अकेली छूटी लड़की का साहस है
नौकरियाँ बचाने के बीच में कोई भूली हुई साँस है

वे तुम्हें जितना मारते हैं
उतना खर्च करते जाते हैं अपनी क्रूरता
फंदा जितना कसता जाता है
उतने खुलते जाते हैं रस्सी के भेद
ऐसी कोई मौत नहीं
जो बेहतर जीने का एक तरीका न सिखाती हो

और जब हम दोनों इस कविता से
थोड़ा जीवन पाने की फ़िराक़ में हैं,
वे लिखवा रहे हैं किराए के किसी लेखक से
पेड़ों और बाघों के लिए नारे
ताकि तुम्हारा ध्यान जंगल पर ना जाए



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5 पाठकों का कहना है :

संध्या आर्य said...

जंगलो के रुख से ही
यह तय है
जमीन के जिस्म से
कई बेहिसाब फूल खिलते है
और कांटे भी
फफोले के बीच
जनमी कई बार पर
उसने मारा उसे कांटो को चुभने तक
जन्म लेने के वक्त
वह एक किताब था
जिसे पता था कि इश्क
ब्याही गीता या कुरान से नही किया जाता

इसतरह वो घने जंगलो के बीच
खाती गई थी उम्मीद
दरअसल जिस्म के घाव थे
लिखने को वह सब लिखती
फूल के से एहसास
जिसे वह कभी भी
सांसो मे नही ले पायी थी

सन्नाटो मे चिखना
घर की चारदिवारी से
बाते करना ही
उसे सिखाया गया था
रोज वह माथे से
चाँद को लगा
ईंटो को जोडती थी

विश्वास भी
सभी के खेतो में
नही उगा करता
पर क्या करे डरावने शक्ल की
दुनिया मे
सभी लुभावने चीज
खुंखार जीव है
जो आंखो के मासूमियत खाते है

हर खुबसूरत शब्द
कितना जंगल है जिसमे
भटकना रास्तो को तलाशना
शहर की तरफ
रौशनी ऊपर कही और से आती है
पूल किसी मरती लडकी की
अंतिम ख्वाहिश
लोग सिर्फ उसके आंखो को देखते
सांसो को गिनना भूल जाते

शब्द सिर्फ शब्द नही है
जिन्हे खा लिया जाय
बस दर्द के कांटे है
जो चुभते है और बह जाते है
फट कर सीमाओ से
वरना लिखने वाला सिर्फ
शब्दो से बाहर आता है
सीमाओ से नही साहब

जीवन की गाँठो से रस्सियाँ
तो खुलती है पर
फंदा मौत की ही बनती है
जीना कितना भी सिख ले
मर्जी की गाँठ नही खुलती
यह वह रंगमंच है
जिसमे बंधे किरदार
अपने अपने सम्वाद हाथो में ले
फडफडा रहे है !

मनोज पटेल said...

वे लिखवा रहे हैं किराए के किसी लेखक से
पेड़ों और बाघों के लिए नारे
ताकि तुम्हारा ध्यान जंगल पर ना जाए
सचमुच...

संध्या आर्य said...

ऐसा भी होता
धरती निगलने लगती
उन सारे गुलमोहरो को
जिसे आप बडे प्यार से उगाये
अपने हथेलियो पर
तब आसमान से
लटकती सांसे
सिर्फ छतो से बचते
और उडान भरते घायल पंख

उम्मीद से लगकर
एक आस्था बधी होती
जैसे किसी पिर या
औलिया के माजार पर
बांध आये हो एक धागा
जिसे आप यूँ ही
नही तोड पायेंगे
साधना से ही तो
दर्द छलकता


अंधेरे में जागते आंखो के
धायल कदमो की रुदन
और हिचकियो से
जिंदगी बचा लेने की
कहानी उम्मीद है
और जंगल भी
जहाँ हर सुबह अंधेरा से शुरु होता
और खाक भी
सुनहरे किरणो की परछाई से

सच तो है कि
डरावना और खौफनाक
वक्त के बाद
बेखौफ सांस पैदा होती
नजरियाँ बदलने लगती
या
खुद जिंदगी ही

यकीन कोई माँ नही होती
जो गोद में लेकर
बताये कि
रोना और हँसना
तुम्हे ही है
करवाँ में सफर लम्बी होगी
और उम्र चौडी
बदलनी होगी
पगडंडियो पर पडनेवाले पदचापो को

हाँ, कविताये कितना कुछ कहती है
और मधुर, सुकोमल भी होती है
जीवन से भरी
जैसे आपके ये शब्द
जिसमे खालीपन भरा रहता है
जीवनयुक्त
काश जंगल नही होता शहर में
और सभी जानवर
एक कविता होते !!

लाल्टू said...

वाह, जैसा गौरव, वैसी संध्या - discovery तो संध्या है. बहुत सुंदर.

संध्या आर्य said...

तहेदिल से शुक्रिया लाल्टू जी
.......................
गुस्ताखी माफ इसलिये कि मै सिर्फ और सिर्फ पाठक हूँ,गौरव जी की रचनाओ मे वह क्षमता है कि उनके शब्द से शब्द सांस लेने लगते है और इसी क्रम में मै कुछ लिख देती हूँ............
वैसे जो कुछ भी मै लिख पायी हूँ आपके कमेंट बाँक्स मे वह आपकी रचनाओ के पढने के बाद ही....... बहुत-बहुत शुक्रिया और आभार गौरव जी !!