हमने मिलकर बनाई थी किसी सदी में बिजली

जबकि मेरी हथेली छ: बूँद पानी भी पकड़ नहीं पाती थी
मैं एक लड़की की मुस्कुराहट को छूने का सपना देखता था
बुलबुले की तरह नहीं मुस्कुराती थी वो (कोई नहीं मुस्कुराता सर)
कि छूने पर टूट जाए
फिर भी मैंने जब-जब उसे तोड़ा
वह मुझसे कह रही होती थी कि दरवाज़ा बन्द करके सोऊँ और अपना ख़याल रखूं
जैसे ख़याल को मेज के ऊपर रखना हो सेब की तरह सजाकर और घर को नींद में याद कि भटकूं नहीं,
चोरी न चला जाए हमारा आँगन,
अपने रूमाल से ही पोंछे आँखें और किसी और की दीवारों से सिर न फोड़ रहे हों

आप चाहकर भी मुझे नष्ट नहीं कर सकते थे,
मैं उतना ही ख़त्म होता था, जितना वो मुझे देखती थी
इस तरह देर से मरना था मुझे, जल्दी होना था अकेला
जबकि अकेला होना टाँग टूटने जितना पुराना दुख है
जिसे मैं अपनी इस नई कविता में इस्तेमाल नहीं करना चाहता था

ऐसा हमें देखकर नहीं लगता होगा जैसे कभी नहीं लगता किन्हीं दो लोगों को देखकर
कि उन्होंने बनाई होगी प्यार जैसी चीज लेकिन यक़ीन मानिए,
जैसे गुझिया बनाते हैं आपके यहाँ
हमने मिलकर बनाई थी किसी सदी में बिजली
और आप तारीखों पर ना जाएँ
तो जो संसार का पहला दर्द है
वह मैंने ख़ूब धूप वाले एक दिन में भोगा था, मुझे याद है

ना ना, आप ग़लत समझे।
पिछले हफ़्ते जिस दिन बारिश हुई बार-बार
मैं बिल्कुल भी अकेला नहीं था और मुझे नहीं याद कि मैं रोया होऊँ



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2 पाठकों का कहना है :

चन्दन said...

अच्छी कविता, गौरव.

संध्या आर्य said...

विवशताये
जिसमे फूल भी
कई एक साथ खिलते
और झड भी जाते
आदत मुठृठियो मे बंधी
एक जिजीविषा है
जो मरने से पहले ही
जन्म भी ले लेती है

जब तुम्हारे नरम हथेलियो के
घास से लगकर
जन्म ले रही थी वह
बेखौफ प्यार किया था उसने
तुमसे और आज भी
तब उसके पैर बहुत ही
छोटे और कोमल थे
जिसे तुमने कई बार पोंछा था
मुस्कुराहटो से
लकीरे भी सांस लेती हुई
खिंची गई थी
सदियो और युगो से परे के वक्त में
जिंदगी के किताब पर उगना
दोनो का तय था

आसमान को
इंद्रधनुषी रंगो की आदतो
ने डुबा दिया था
जिसमे और घुलता रहा रंग
एक घुट उसने पी ली थी उसके
हुन्नरमंद अक्षरो से
ना मिटने वाले राग की तरह
ब्रह्माण्ड के कोने से लगकर
वह देखती थी एकटक
उसके ना भूल पाने वाले
चेहरे को
जिसमे प्यास थी
ढाई अक्षर की !!