ऊपर मृत्यु को जब मैंने एक शब्द में बदला

बड़े दुख इतने छोटे लगेंगे आपको कि
मैं आत्महत्या की बात को ऐसे बताऊँगा
जैसे साल का सबसे बड़ा दिन इक्कीस जून था
जिसे एक थमी हुई ट्यूबवैल के बाहर की हरियाली में मैंने
अपनी मां के पिता के साथ देखा था,
वे कुछ जिलों को मुझसे ज़्यादा जानते थे
और उनके मरने के बाद मैंने जाना इतना कुछ, आप तो जानते ही हैं,
मगर जो बेकार था एक तरह से क्योंकि जहाँ दौड़ा जाता था मैं
वहाँ मरना एक ज़िम्मेदारी की तरह आता था
जिसमें वे सब साथियों की तरह गायब होते जा रहे थे
बस मेरे खून में कुछ लोग और कुछ खेत थे
और हममें से कोई भी जीवन के बारे में विश्वास से नहीं बता सकता था एक भी बात

किताबें लिखना बहुत आसान था

तब हम आकाश को आकाश की तरह जानते थे,
रात को सोने और पैरों को पाजेब की तरह,
मैंने जब खनकना पहली बार सुना
तब मैं उसे एक शब्द की तरह नहीं जानता था,
शब्द की तरह जानने के बाद मैं उसे खनकने की तरह नहीं सुन पाया

ऊपर मृत्यु को जब मैंने एक शब्द में बदला
तब उसका वैसा कोई अर्थ नहीं था
जैसा वे लड़कियाँ रोज़ आईने में देखती थीं



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4 पाठकों का कहना है :

प्रशांत मलिक said...

27% samajh me aa gyi

संध्या आर्य said...

जो लोग शब्दो से
सांस लेना और मरना जानते थे
फडफडाने में उन्हे आसानी होती
क्योकि हवा मे प्रदुषण ज्यादा
और नमी कम थी
उन्ही खेतो मे कुँओ के पास
जहाँ माँ और पिता
दोनो मरते थे साथ-साथ पर
हम पानी के लिये तडपते घण्टो

शतरंज हो चली थी जिंदगी
जितने प्यादे
उतनी तरह की मौत
हममे से कुछ इतने भाग्यशाली थे
कि कम समय मे कई तरह की
मौत मरते और कफन भी सिल लेते थे
शरीर के फटते ही

भुकम्प के समय शब्द
कविता लिखते और
अक्षर बिन ब्याही लडकी की तरह
अरमान संजोता
दिन कई तरह से आता
जिसमे रोना होता
इक नदी की तरह
और हंसना दोपहर के प्यास की तरह

शब्दो के उडते भाप से
उसने सेंके थे कई भाव
जिनसे होकर दर्द का दरिया पिघलता
खाक होना होता उसे जिंदगी की तरह
पर आत्मा शब्दो के पंख
ले उड जाता
संजोता घटती सम्वेदनाये !

Anil said...

Mujhe bahut accha laga

संध्या आर्य said...

जिंदगी पर किताब और
किताब पर जिंदगी दोनो भारी है
क्योकि दोनो एक ही है
इनके पन्ने कुछ सूखे तो
कुछ गीले इसतरह है कि
सूखे को पढकर सूखा
और गीले को पढकर
गीला नही हुआ जा सकता

किताब सी जिंदगी में
कदम हमेशा उल्टे पडते दिखे
और बढते हुये
पृथ्वी के विपरित ध्रुव की तरफ
जहाँ किसी भी तरह की अधिकता
जीवन नही देती
तब बचाव का मार्ग ही शेष होता

पृथ्वी के सीने से
निकली घासो की कोमल स्पर्श से
एहसास को नही बल्कि
हकिकत को काटती
जहाँ सूखते घासो की
कोई कमी ना थी

ट्यूबवैलवाली हरियाली से
रिश्तो की प्यास नही बुझती
क्योकि आज हरियाली हरे रंग की है
वैसे ही जैसे
चेहरे पर मुस्कान तो होती पर
दिल की जमीन से कोई नही
मुस्कुराता है साहब
सच कहा था

जमीन से आकाश तक
सभी ने पहन रखे है लिबास
और अलग-अलग रंगो के
कोई भी बच्चो की तरह नही छूता
सभी रोते है अपना रोना
जैसे बडे रोते है
सुनते कुछ नही

अब आकाश मे
वे परिंदे नही है शेष
जो रंग और दानो के लिये
आपके कंधो पर बैठे
और चहके भोर होने तलक !!!