कुछ न लिखने के बारे में

आजकल कुछ लिखने का मन नहीं करता। मान लो कि मैंने दो-चार कहानियाँ और लिख दीं तो क्या उनसे दुनिया बदल जाएगी? कल शुक्रवार है और मैं पिछले चार दिन से अपने कमरे में बीमार पड़ा हूँ। इन दिनों मुझे भूख नहीं लगती और इसमें एक बात अच्छी भी है कि पैसे कम खर्च होते हैं। मुझे पैसों की सख़्त ज़रूरत है और यदि मैं कहूँ कि इस कहानी को पढ़ने वाला हर व्यक्ति - यदि यह कहानी है, तो - मुझे पचास रुपए ही दे दे तो आप तुरंत यह ब्लॉग बन्द कर देंगे और कभी इधर नहीं लौटेंगे और यह तब, जब पचास रुपए तो अठन्नी जितने अर्थहीन हो गए हैं। इसीलिए मेरा मन करता है कि मैं इस कहानी को यहीं छोड़ दूँ। आखिर क्यों लिखूँ मैं और किसके लिए? क्या इससे बेहतर यह नहीं होगा कि इतने समय में मैं भी आपकी तरह ऐसा कोई काम कर लूँ जिससे ख़ूब सारा पैसा कमाया जा सके? मैं कहानी लिख दूँगा और आप पढ़ लेंगे और फिर कुछ देर बाद शायद भूल भी जाएँगे। भूले नहीं भी तो क्या आपका याद रखना मेरी बीमारी ठीक कर देगा? मैं किसी दिन भूखा मर रहा होऊँगा तो क्या आपका वह अहसान से लदा याद रखना मेरा पेट भर देगा?
अरे..नहीं नहीं। ख़ुश मत होइए और न ही सहानुभूति जताइए। मैं आपसे कुछ माँग नहीं रहा हूँ। मैं बस इतना कहना चाहता हूँ कि हालात ही कुछ ऐसे हो गए हैं कि मुझे अपने पाठकों से ही चिढ़ होती है। मैं इसे चाहकर भी आपसे नहीं छिपा सकता। इसमें मेरा नुक्सान ही नुक्सान है और मैं अपनी बीमारी के साथ साथ इस ताज़ी पैदा हुई नफ़रत से भी जूझ रहा हूँ। मैं आत्मघाती क़िस्म का इंसान हूँ और अपनी इस प्रवृत्ति से मुझे डर भी लगता है।
मैं नहीं जानता कि जितने महान लेखक हुए हैं, वे किस तरह से अपने आप को बरकरार रख पाए मगर मुझे कुछ दिनों के लिए लगने लगा है कि लेखक होना अपने आप के साथ किया गया सबसे बड़ा अन्याय है। यह तमाशबीनों के बीच मुफ़्त में घंटों नाचने जैसा है और यदि आप अपनी आत्मा इसमें झोंक देते हैं तो यह आत्महत्या है।

मेरे प्रिय कवियों में से एक शिव कुमार बटालवी ने एक बार कहा था कि यह संसार ही ऐसा है, जिसमें बुद्धिजीवियों को धीरे धीरे नष्ट होते जाना है। वे अपनी जवानी में ही मर गए, मेरे पसंदीदा गुरुदत्त की तरह।
हर सुबह के सपने में मैं चाहता हूँ कि अचानक पता चले कि यह ज़िन्दगी एक बुरा सपना थी, जो टूट गया। धूप जब आती है तो मैं अकेला होता हूँ।
बाहर उम्मीदों के हरे पौधे हैं। मैं रोज़ तुम्हें देखते हुए जगना चाहता हूँ। क्या तुम पढ़ रही हो?



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16 पाठकों का कहना है :

neera said...

:-)पचास रूपये कैश या क्रडिट कार्ड?

अनिल कान्त said...

क्या मियाँ आप भी :)

सागर said...

एक ठीक ठाक अनुभवी ने एक बार मेरे भी कंधे पर हाथ रख कर कहा था "देखना कहीं शिव कुमार बटालवी ना बन जाना"... आपने जो बात उठाई है जो वाजिब है, रचना के दौरान जिस परिस्थितियों से गुज़ारना होता है उसमें बर्बादी की स्थिति ही होती है... कोई गैरंटी नहीं की क्या होगा ? एक लेखक, कवि (सच्चे) जिस हाल से गुज़रता है या जिन परिस्तिथियों पर खिन्न होता है, यह कितनी निराशाजनक होती है, कितने अवसाद घेरते हैं... और इससे क्या बदलाव आता है यह सोचने की बात है... कसम से मुझे भी लगता है की लेखक बनना आत्महत्या करना है... ये अवसाद कहाँ ले जाएगी मालुम नहीं...

सागर said...

लेकिन मैं यह गुज़ारिश भी करूँगा की इसे सिर्फ एक पोस्ट में गंभीर मामला भर ही रहनेन दें... मैं फिर भी आशा की बात ही करूँगा दोस्त... आप बेहतरीन लिखते हैं... जरुरत है आपकी...

abcd said...

लिखना यदि छोड़ दो और कोई दूसरा लाभदायक काम करने लगो ,जिसमे struggleे नहीं,फाके नहीं,और एक अदद break-through की दरकार नहीं....तो मुजहे भी बता देना....अब देखें तुम्हारी चीढ़ कितनी creativityे पैदा करती है ...शुभकामनाएं

चन्दन said...

कैसी बात कर दी यार तुमने? लिखने का दूसरा कोई कारण छोड़ दो बस मैं एक कारण बताउंगा और तुम्हे लगेगा कि हाँ गौरव को लिखते रहना चाहिये। कारण है: जो तुम लिखते हो मेरे भाई. कोई दूसरा चाह के भी नहीं लिख सकता। तुम्हारी लिखी बातें अपनी बात लगती है। रही पैसे की बात तो यार बस एक बार क्लिक कर जाओगे, फिर आराम भर का और काम भर का पैसा आ ही जायेगा। नौकरी तो देखो मैं भी छोड़ने ही वाला हूँ और बिना किसी अफसोस के। मन से लिखो।

arun choudhary said...

wah dost,kya kahne h.......kisi ne sahi he kaha h "pinjre k panchi re ,tera dard na jaane koi"..........waise dard ko dur karne ka sab se accha tarika dard ki abhivyakti he h......chahe koi sune ya na sune,padhe ya na padhe,comment kare ya na kare........har ek ki kahani to us dhup ki tarah h jo agar siberia mein nikalti h to praanpyari h,wahi agar sahara raigistan mein h to aankhoon ki kirkiri h......kher likhte jao.....aur waise bhi tum to choice se writer ho majburi se nahiiii.........corporate aur paise ko jo laat maar de wo jism itni jaldi haar manega nahi....kyon h naa?????

डॉ .अनुराग said...

ऐसे सिमटम कई बार मोहब्बत में भी आते है ....ओर पेशेंट की डिनायल स्टेट भी.....जब ज्यादा जब पेशेंट ज्यादा पढ़ा लिखा हो ....गुरुदत्त सारे इमोशनल लोगो के फेवरेट थे .शायद ऊपर वाला भी सेंटी है.इसलिए जल्दी ट्रांसफर करवा लिया ......वैसे ब्रेक अच्छा है ..इससे फार्म बनी रहती है....तुम्हारी गुल्लक भर जाये ..तो इंडिकेटर मेरी ओर कर देना प्लीज़ .....

श्याम जुनेजा said...

क्यों न इस बहस को एक सार्थक बहस की शक्ल दी जाये ... एक लेखक जब दुःख से टकराता है उसके दर्द की शिद्दत कुच्छ और होती है . हैरान तो इस बात को लेकर हूँ इतनी इतनी चोटें खाने के बाद भी पता नहीं कोई लेखक दुःख के सुराग तक दुःख की जड़ों तक क्यों नहीं पहुँच पाया .. शायद आज तक लेखक था और उसका एकांत था .. अब तो ऐसे बात नहीं है क्या हम सब मिलकर उस जड़ तक नहीं पहुँच सकते जो आर्थिक भी नहीं है राजनैतिक भी नहीं है धार्मिक भी नहीं है लेकिन सामाजिक है .. जीवन नित्य नूतन है उसकी चुनोतियाँ हर पल नई हैं लेकिन समाज हर पल पुराना पड जाता है नई चुनोतियों का सामना करने में सर्वथा अक्षम .. क्या कुच्छ ऐसा किया जा सकता है जो इस अन्तराल को पाट सके

Dharmendra Singh Baghel said...

He Gurudatt & Batalwi k fan, MAUT 1 fantasy hai, par ye to batao ki "kya tum padh rahi ho"yeh kisase pooch rahe ho?Is dhikkar aur fatkar bhare blog ka karan iske uttar me chupa dikhta hai.Yah toh Dhobi k dosh par Gadhe k kan umethna hua.Kamao bhi aur likho bhi,dono jaroori hai.. kisi 1 ko na karne par doosre me adchan ayegi hi.He Atmghati share wid ur pathk(fan k fan).
Par bhai ye bhi toh bata do k Sudha kaha hai?
Dharmendra

अपूर्व said...

भाई मुझ नासमझ को बस दो बातें समझ आती हैम..पहली यह कि कविता लिख कर दुनिया को बदलने का ख्वाब निहायत ही बेवकूफ़ी भरा है..और दूसरी यह कि समझदारों से भरी बजबजाती इस दुनिया मे ऐसी बेवकूफ़ियाँ ही कोई फ़र्क ला सकती हैं...फिर लेखन जिनकी च्वाइस होता है वो उसको यूज कर सकते हैं..मेनिपुलेट कर सकते हैं..अपने फ़ायदे नुकसान के हिसाब से..बदन के कपड़ों की तरह बदल सकते हैं..साइज और फ़ैशन के मुताबिक...मगर उन्का क्या जिनके लिये लिख्नना उनकी स्किन की तरह हो जाये??..अनकम्प्रोमाइजिंग और अनअपोलोजिस्टिक !!!..और कितने ऐसे बेवकूफ़ हुए हैं जिनकी स्किन जमाने के साइज के हिसाब से फ़िट नही बैठी..और वक्त के बुलडोजर तले कुचल दिये गये..भुवनेश्वर..शैलेश मटियानी..स्वदेश दीपक..गोरख पांडे..पाश..एना सेक्स्टन..लोर्का..मारिना स्वेत्येवा..कितने नाम हैं..जिन्हे वक्त के हिसाव से अपना साइज बदलना नही आया..!!
तरीका आसान है कि आप भी दुनियादार इंसान हो जाओ..और जिंदगी झोंक दो मतलबी दुनिया के जबड़ो मे..सम्भव है कि आप खूब सारा पैसा कमा कर अम्बानी-टाइप बन जाओ...अपनी और अपनो की खुशियाँ खरीद लाओ किसी मॉल मे सेल से..मगर फिर आप एक नंबर बन कर रह जाओगे हमारी तरह..छः बिलियन लोगों के बीच..और शायद किसी सुबह उठने पर आइने मे खुद को ही न पह्चान पाओ..
हाँ नाच वह मुफ़ीद होता है जिसे किसी तमाशबीन की दरकार न हो..यही फ़र्क एक मदारी और चैतन्य महाप्रभु के बीच भी रहा होगा..
...माफ़ करना दोस्त अगर कुछ तल्खी अच्छी न लगी हो आपको..मगर आपकी पोस्ट पढ़ कर रोक न सका....
सॉरी भी बोलूँगा...

प्रशांत मलिक said...

ha vo padh rhi hai
vo har vo cheej padhti hai jo uske bare mee likhi jati hai...
or bbahut safai se es baat ka pata bhi nahi chale deti...

mahipal pondicherry said...

kya likhte ho yar. kuchh aisa likho ki dil khush ho jaye tumhara bhi or pathak ka bhi.
kya yar hamesha mot or marne ki baten karte ho.

Navin rangiyal said...

लिखना खुद को खोजने की तरह है ... और नहीं लिखना खुद को खोने की तरह या खोते जाने की तरह ...

रोमेंद्र सागर said...

सिर्फ़ एक लफ्ज़ " वाह " !!!

Dnesh said...

Nahin