प्यार

मेरे होने से बहुत पहले से थी माँ
और मेरे पिता
जो एक किसान थे,
किसान न रह सके।
वे एक पहाड़ पर गए
और दूब बन गए
अर्थात् उन्होंने काटी घास
और सूर्यास्त के समय जब वे लौटते थे,
तो ऐसा कहा जाता है कि
नहीं बजती थी दुदुम्भियाँ
और माँ जो रोटियाँ रचती थी,
उनमें से कोई नहीं थी गोल।

माँ सुंदर और पिता चुप्पे थे,
ऐसा लगता है मुझे।

बहुत दूर जो घड़ियाल बजता था रात में,
उसे भरे पेट नहीं सुना जा सकता।
बहुत दिनों तक नहीं खाई जा सकती उम्मीदें
और उन दिनों,
जब आपातकाल था,
उन दोनों के पास आत्महत्या कर लेने के
अपने अपने ग़ैर राजनैतिक कारण थे।

मैं जब गर्भ में नहीं था,
तब भी उदास थी माँ
और रो पड़ती थी।
पिता नहीं रोए कभी
और अगर मैंने ऐसा कुछ देखा है
तो वो झूठ होगा।

उस समय की हर तस्वीर में
उन दोनों के चेहरे पर एक स्थाई भाव है
जिसे मैं और आप नहीं समझ सकते।

माँ कहीं घूमने नहीं गयी कभी,
पिता ज़रूर गए दो चार शहर
और पूरियां और अचार ले गए।
बहुत दिन तक रहना हुआ बाहर
तो लिख देते थे, ठीक हूँ।

ऐसा नहीं हुआ कभी
कि करवट लेकर लेटी माँ ने पूछा हो,
" प्यार करते हो तुम मुझसे?"
और पिता ने "हाँ" कहा हो
या माँ के होठों को चूम लिया हो।
यह ज़रूरी भी नहीं था।



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13 पाठकों का कहना है :

maithil said...

Kavita achhi hai. Aur nishchay hi yah pyar ke mayane ko samjhati hui hai. JO aaj shahri jeevan me kahin kho gaya hai. Saath hi abhavon me pyar kitna katin hai darsata hai.

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

बहुत दूर जो घड़ियाल बजता था रात में,
उसे भरे पेट नहीं सुना जा सकता।
बहुत दिनों तक नहीं खाई जा सकती उम्मीदें
और उन दिनों,
जब आपातकाल था,
उन दोनों के पास आत्महत्या कर लेने के
अपने अपने ग़ैर राजनैतिक कारण थे।

बहुत सुन्दर भाव डाले आपने कविता में !

कुश said...

ऐसा नहीं हुआ कभी
कि करवट लेकर लेटी माँ ने पूछा हो,
" प्यार करते हो तुम मुझसे?"
और पिता ने "हाँ" कहा हो
या माँ के होठों को चूम लिया हो।
यह ज़रूरी भी नहीं था।


क्या खूब लिखा मारा है.. गौरव भाई..

सागर said...

गद्द को आपने पद्द का रूप दिया है, लेकिन बहुत अच्छा दिया है... आप ऑरकुट पर मेरे दोस्त हैं और कमाल लिखते हैं... इसमें कोई शक नहीं... सोचता हूँ कभी आपके पास बातों की कितनी खान है और वो कितने सारे विचारों से भरी पड़ी हैं... ताज्जुब है... बहरहाल, यह कविता बहुत अच्छी है...

अनिल कान्त said...

तुम अपनी रचना में बहुत गहरी और दूर तक की बात कह देते हो

सुशीला पुरी said...

बैठे बैठे यूँ ही कलम लेकर
मैंने कागज़ के एक कोने पर
अपनी माँ
अपने बाप ...के दो नाम
एक घेरा बना के काट दिए
और
लिख दिया पूरा इतिहास .

सुशीला पुरी said...

मेरे ब्लॉग के लिए भी कभी समय निकालिए .

अशोक राठी said...

adbhut

अपूर्व said...

आपकी इस कविता को पढ़ कर उदयप्रकाश साहब की तिरिछ ख्याल मे आ गयी..बहुत सही जगह पर मार करती है यह कविता.
..सबसे उम्दा प्यार वही है जिसे कभी जताने की जरूरत न पड़े.
..अपने नये प्रशंसकों मे मेरा नाम भी शुमार कर लिजियेगा.
शुभकामनाएं

Manuj Mehta said...

bhav har baar ki tarah, sashakt, ek hi saans mein padhe jaane waali kavita/kahani ya kuch aur..

गौरव कुमार *विंकल* said...

मैं जब गर्भ में नहीं था,
तब भी उदास थी माँ
और रो पड़ती थी।
पिता नहीं रोए कभी
और अगर मैंने ऐसा कुछ देखा है
तो वो झूठ होगा।

bahut acchi lagi, or dil ko choo gayi.

प्रशांत मलिक said...

ऐसा नहीं हुआ कभी
कि करवट लेकर लेटी माँ ने पूछा हो,
" प्यार करते हो तुम मुझसे?"
और पिता ने "हाँ" कहा हो
या माँ के होठों को चूम लिया हो।
यह ज़रूरी भी नहीं था।

jaan hai kavita ki ..gajab hai bhai

ritu raj said...

...और माँ जो रोटियाँ रचती थी,
उनमें से कोई नहीं थी गोल।

यह कविता बहुत अच्छी है.....
अपने नये प्रशंसकों मे मेरा भी नाम शुमार कर लिजिये.
शुभकामनाएं