महात्मा गाँधी की आँखें

वह जो मृत्यु थी
अपनी गोलाइयों में मेरा सिर समेटे
और जिसके नाम में
मेरे नाम के हिज्जे थे,
झूठी मुस्कान बिखेरते बिखेरते
मैं ठोकरों या जोकरों में आ गया था ,
स्तम्भित और स्तब्ध था
और तब एक भीड़ भड़क्के वाले क्षण में मैंने जाना
कि मृत्यु का रंग
आटे और छत के रंग जैसा है।

टूटती थी घड़ियाँ,
समय बजता था खनन खनन,
गली के जिस मोड़ पर
मैं मुड़ना चाहता था,
वहाँ दो हथियारबन्द सिपाही
दो वेश्याओं को सुना रहे थे अपनी फ़ैंटेसियाँ
और जज साहब,
मैं कोई महापुरुष नहीं था,
कई बार भूख लगती थी मुझे दिन में
और बार बार बीमार पड़ता था।

इसे संयोग ही कहिए
कि अपनी बेवज़ह विकलता की दवाई खरीदते हुए
जिस क्षण मेरे माथे पर गोली लगी
और सामने दीवार पर
पोस्टर लगाना और क्रांति करना मना था,
तब मैंने अपनी जेब के आख़िरी मुचड़े हुए नोट को छुआ था
और महात्मा गाँधी की आँखें
मेरी उंगलियों के बीच थी कहीं।

हम मरे।