खिड़की से बाहर जो हाथ है

क्या समय को भी बदला जा सकता होगा
कपड़ों या फिर मन की तरह
कि दुश्मनों के बच्चों में मिलाकर छोड़ आएँ अपने बच्चे
और अपने बूढ़े होने का इंतज़ार करें


कितना प्यार करें आख़िर इन कमज़ोर होते हाथों से
इस बिना फ़ुर्सत के समय में
और कितने पैदा करें बच्चे?
ख़त्म करने को दुश्मनियाँ
कितने जुलूसों में शामिल हों
कितने शामियानों के नीचे सिर झुकाए
यह सोचने की ज़गह वह सोचते हों
जो पिता ने सिखाया था कि सोचना चाहिए,
और ठीक कहाँ ख़त्म हों
कि आपको लगे- अच्छे ख़त्म हुए इस बार


शहर के बाहर से मँगाए जाते हैं मौसम
हमारी तरह हर बार
और हम मौसमों की तरह
एक भी बार नहीं ले पाते अपना मज़ा,
जैसे सफ़र में हों
नाम पूछते हैं और भूल जाते हैं
पानी माँगते हैं और पछताते हैं
मैं बार-बार तुमसे कहता हूँ
कि जब मैं चला जाऊँ, रखना मेरा ख़याल
खिड़की से बाहर जो हाथ है
उसे बचाए रखेंगे क्या ये खंभे और ट्रक
मेरे लौटने तक?
क्या यह शोर चीलों के आने तक
इसी तरह होता रहेगा?


जब मैं यहाँ नहीं होऊँगा
और नहीं होगा मेरे मनहूस उदास हो जाने का डर
क्या लगाएँगे ये लोग मेरी ठीक-ठीक क़ीमत
और कौनसी भाषा में
किस तरफ़ चेहरा करके हँस रहे होंगे?
है तुम्हें कुछ अंदाज़ा मेरी सोनपरी?


और कहाँ से होकर आएगी वह सुबह
जिसे उम्मीद के अर्थों में इस्तेमाल किया जाता रहा है?



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7 पाठकों का कहना है :

सागर said...

कितना प्यार करें आख़िर इन कमज़ोर होते हाथों से
इस बिना फ़ुर्सत के समय में
और कितने पैदा करें बच्चे?
ख़त्म करने को दुश्मनियाँ
कितने जुलूसों में शामिल हों
कितने शामियानों के नीचे सिर झुकाए
यह सोचने की ज़गह वह सोचते हों
जो पिता ने सिखाया था कि सोचना चाहिए,
और ठीक कहाँ ख़त्म हों
कि आपको लगे- अच्छे ख़त्म हुए इस बार

बेजोड़... सारगर्भित...सुन्दर सवाल

दिपाली "आब" said...

और हम मौसमों की तरह
एक भी बार नहीं ले पाते अपना मज़ा,

yeh nazm bahut bahut shandar rahi .. kai baar padhi.. bahut khoob rahi yeh wali nazm..daad kubool karein :)

चन्दन said...

very good poem Gaurav..keep this in ur first collection..

प्रवीण पाण्डेय said...

वह सुबह कभी तो आयेगी...

संध्या आर्य said...

चाहत धरती की आंख सी
अटल, स्थिर, शांत
महासागर की तरह
वक्त इन सब मे,
बनता बिगडता ग्रह
यानि अटल

बेबसियो मे फंसी जान
और दिन प्रतिदिन
सांस की उत्तरार्धगति मे सिथिलता
तनी सीनो पर
ध्वस्त करना अपना झंडा
मान्यताओ को सीखने के क्रम मे
हाथ खडा करना वंशज सोचो पर

खुद को बचा लेने की दौर मे
स्वयँ की पहचान पेंचीली गाँठे
बुढाये वक्त की
बालो सा खुलना
कई कोरो और छोरो से
बंधे रहना आत्मदीपक से,

तप्ति रेगिस्तान पर
बूंद बूंद श्रापित एहसान से
मुक्त होने की जिद्द पर
लाखो चीलो से
नुचवाते जिस्म मे
बचा लेना एक अच्छीवाली कविता

अस्तित्व का धरातल तरल
चाँद पर पानी होने जैसा कुछ
जो आकार में घटता बढता है
खिंचता है नमकीन पानियो को

सुनहरे सुबह मे
जन्मे सूरज की कीमत
परियो सी अनमोल
लोग छूने की चाहत मे
पीछे ,

उफनती लहरो की
स्वरनाद पर जन्मी
स्वरलहरियो की भाषा मे
कंचनजंघा के शिखर पर
विराजित होगा सुबह !!!

Avanish Gautam said...

बढिया कविता!!

Sumit Singh said...

kamaal ke rachanaa...