जब भी सिगरेट जलती है...

मेरा मन कर रहा है कि सिगरेट पीना शुरु कर दूं। मुझे याद नहीं आता कि फ़िल्म बनाने, कविता लिखने या रोने के अलावा किसी और काम के लिए अचानक इतनी तीव्र इच्छा जगने लगी हो। बचपन में जब घर में फ़्रिज नहीं था तो गर्मियों की शाम में क्रिकेट खेलकर घर लौटने के बाद बर्फ सा जमा हुआ पानी पीने के लिए भी बहुत मन किया करता था। पहली बार प्यार किया था तो उसके होठों को छूने का भी बहुत मन करता था। लेकिन सिगरेट पीने का मन नशे की तरह करता है, जैसे मुझे चखने से पहले से ही नशा होने लगा हो। यह उसी तरह है, जैसे कभी कविता न लिखी हो और कविता लिखने का मन कर रहा हो या कभी फ़िल्म न बनाई हो और तब भी पता हो कि यही वह काम है, जो संतुष्टि देगा।
‘नो स्मोकिंग’ मेरी पसंदीदा फ़िल्मों में से है और ‘कश लगा’ और ‘जब भी सिगरेट जलती है’ आज ही कई बार सुन चुका हूं। इस पोस्ट का मक़सद गाने के बोल देना या गाना सुनवाना तो नहीं था, लेकिन फिर भी दस्तूर है तो जोड़े देता हूं। लिखा गुलज़ार ने है, संगीत विशाल भारद्वाज का है, गाया सुखविंदर सिंह और दलेर मेंहदी ने है।
और कृपया सिगरेट के नुक्सान मत बताइएगा। मुश्किल ही है कि मैं पियूं। हम कहाँ सब कुछ अपने मन का कर पाते हैं?

कश लगा - सुना नहीं है तो यहाँ से सुन लीजिए

कश लगा, कश लगा, कश लगा, कश लगा....
कश लगा, कश लगा, कश लगा - 2

ज़िन्दगी ऐ कश लगा - 2
हसरतों की राख़ उड़ा

ये जहान फ़ानी है, बुलबुला है, पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या, पानियों पे बहता जा बहता जा
कश लगा, कश लगा, कश लगा....

जलती है तनहाईयाँ तापी हैं रात रात जाग जाग के
उड़ती हैं चिंगारियाँ, गुच्छे हैं लाल लाल गीली आग के
खिलती है जैसे जलते जुगनू हों बेरियों में
आँखें लगी हो जैसे उपलों की ढेरियों में
दो दिन का आग है ये, सारे जहाँ का धुंआँ
दो दिन की ज़िन्दगी में, दोनो जहाँ का धुआँ

ये जहान फ़ानी है, बुलबुला है, पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या, पानियों पे बहता जा, बहता जा
कश लगा, कश लगा, कश लगा....

छोड़ी हुई बस्तियाँ, जाता हूँ बार बार घूम घूमके
मिलते नहीं वो निशान, छोड़े थे दहलीज़ चूम चूमके
जो पायें चढ़ जायेंगे, जंगल की क्यारियाँ हैं
पगडंडियों पे मिलना, दो दिन की यारियाँ हैं
क्या जाने कौन जाये, आरी से बारी आये
हम भी कतार में हैं, जब भी सवारी आये

ये जहान फ़ानी है, बुलबुला है, पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या, पानियों पे बहता जा बहता जा
कश लगा, कश लगा, कश लगा....
ज़िन्दगी ऐ कश लगा
हसरतों की राख उड़ा
ये जहान फ़ानी है, बुलबुला है, पानी है
बुलबुलों पे रुकना क्या पानियों पे बहता जा, बहता जा
कश लगा, कश लगा, कश लगा....



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7 पाठकों का कहना है :

manvinder bhimber said...

छोड़ी हुई बस्तियाँ, जाता हूँ बार बार घूम घूमके
मिलते नहीं वो निशान, छोड़े थे दहलीज़ चूम चूमके
जो पायें चढ़ जायेंगे, जंगल की क्यारियाँ हैं
पगडंडियों पे मिलना, दो दिन की यारियाँ हैं
क्या जाने कौन जाये, आरी से बारी आये
हम भी कतार में हैं, जब भी सवारी आये
bahut khoob...kya andaaj hai

सुशील छौक्कर said...

दोस्त कौन से ब्रांड की चाहिए ये तो बताया नहीं।खैर जब सुलगा लो बुला लेना, अकेले अकेले सिगरेट नही पीया करते ।

छोड़ी हुई बस्तियाँ, जाता हूँ बार बार घूम घूमके
मिलते नहीं वो निशान, छोड़े थे दहलीज़ चूम चूमके
जो पायें चढ़ जायेंगे, जंगल की क्यारियाँ हैं
पगडंडियों पे मिलना, दो दिन की यारियाँ हैं
क्या जाने कौन जाये, आरी से बारी आये
हम भी कतार में हैं, जब भी सवारी आये

बहुत उम्दा लिखा हैं। अच्छा लगा आपके यहाँ आकर।

Puja Upadhyay said...

सिगरेट पीने का मन करना, कविता लिखने की ख्वाहिश...ऐसे चीज़ें जोर मारती हैं तो हम अक्सर कर बैठते हैं. मैं तो कहूँगी पी लो...अच्छा फील होता है. और रही बात आदत लगने की, तो ऐसे ही थोड़े लग जाती है. हाँ अकेले पीना :D
हम सब कुछ अपने मन का नहीं कर पाते हैं, पर सिर्फ़ इसलिए मन को मर तो नहीं जाना चाहिए, कुछ और नहीं कर पाने की खुन्नस सिगरेट पे निकाल लो शायद फ़िर ये नहीं कह पाओगे की हम सब कुछ अपने मन का नहीं कर पाये. मैं याद दिला दूंगी की तुमने अपने मन के मुताबिक सिगरेट पी थी.

नीरज गोस्वामी said...

गौरव जी यूँ तो सिगरेट पीना ठीक बात नहीं लेकिन जब इच्छा इतनी तीव्र हो तो एक आध पी लेनी चाहिए...एक तजुर्बा ही सही...नो स्मोकिंग फ़िल्म और गीत दोनों कमाल के हैं...
नीरज

PD said...

आज बहुत दिनों बाद मुझे लगा कि आप मेरी जबान बोल रहे हैं..
मैं तो चला पीने.. आप चलते हैं क्या?
गोल्ड फ्लेक, विल्स या मार्लबोरो??

azdak said...

अब यही सब अरमान बचे हैं? बड़ों से कुछ पूछना नहीं बचा?

pallavi trivedi said...

peekar dekh lene mein koi harz nahi bas dhyaan rakhna ki gale na pad jaye.....