एक निर्दयी निर्लज्ज हँसी तैरती है
ज़मीन से आकाश तक,
शहर में शनिवार है
जिसे मुझ पर ज़ाया नहीं किया जा सकता,
आँखों में लाल मिर्च की झोंक सा दर्द
जागता है रात भर पहरेदार बनकर,
फिर भी रात में फ़्रिज़ खोलो तो
सूरज दिखता है।
मरते मरते भी लगेगा
कि जन्मा हूं अभी
और माँ है सुबह सुबह।
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रात में फ़्रिज |
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कि घर है |
शहीद होने की एक ज़रूरी सामाजिक प्रक्रिया में
मैं ग़ैरज़रूरी ढंग से फँस गया हूं
शर्मिन्दा हूं।
बिसलेरी की पुरानी बोतल की तरह,
जिसकी विप्लवी आत्मा को तुमने रैपर की तरह छीला है निरंतर बेवज़ह,
तुम मुझे बार बार खाली करती हो
बूंद बूंद टप टप
और किसी सीले हुए पहाड़ी स्टेशन की टोंटी पर से
फिर भर लेती हो।
या कि तुम्हारे लगातार बेघर होने की प्रक्रिया में
मैं घर हूं
तुम्हारे सरहद होने की प्रक्रिया में पाकिस्तान?
डर और अचरज मुझे
क्रमश: नींद और भूख की तरह होते हैं।
क्या मुझे चौंकते चौंकते
हो जाना है शहर की तरह कुत्ता
और दुम हिलानी है?
हर दुतकारे जाने के बाद करना है
पुचकारे जाने का इंतज़ार
और वे सब लम्बी रातें भुलाकर – सच जब मैं किसी अनजान ट्रेन में चढ़कर हो जाना
चाहता था लापता किसी लम्बी खदान में पत्थर तोड़ने को उम्र भर - कूं कूं करके खाने
हैं ब्रेड और बिस्किट
और तुम्हारी ट्यूबलाइट सी नंगी टाँगों पर टाँगें रखकर
बेताब बिस्तर पर साथ सोना है?
नींद भर अँधेरा है
और है राख में रेत
जिसमें मैं तुमसे कहता हूं कि घर है।
लौटेंगे।
[+/-] |
मैंने देखा कि मेरी तीन माँएं हैं |
आप कहानी में ज़रा देर से दाख़िल हुए हैं। न पढ़ा हो और मन हो तो इससे पहले के भाग जामुनी जादू और फिर पापा जल्दी घर आ जाओ पहले पढ़ सकते हैं और मन नहीं है तो यहीं से शुरु कर दीजिए। देखा जाएगा :-)
लता ने कहा - वहाँ देखो, कितने जाले लगे हैं।
और माँ दौड़कर मेज उठा लाई और उस पर चढ़कर फूलझाड़ू से जाले उतारने लगी।
मैंने कहा- मुझे और भूख लगी है।
माँ दौड़कर रसोई में गई और आटा छानकर गूंथने लगी।
पिताजी ने कहा- मैं आज खाना नहीं खाऊँगा।
माँ ने उनकी रोटियों पर थोड़ा ज़्यादा घी चुपड़ दिया। वैसे घी पश्चिमी चिकित्साशास्त्र का दुश्मन था, जो किसी भी रोग में सबसे पहले बन्द करवा दिया जाता था।
मैंने देखा कि मेरी तीन माँएं हैं, एक रोशनदान पर टँगी हुई, एक आटा छानती हुई, एक घी चुपड़ती हुई।
मैंने लता को दिखाया- देख लता। तीन तीन माँ।
- हाँ।
उसने भी देखा। मैं दौड़कर बरामदे में बैठे पिताजी के पास गया।
- देखो पिताजी, तीन तीन माँएं।
- हाँ।
उन्होंने भी देखा।
मैंने लता से पूछा- क्या टाइम हुआ है?
- साढ़े दस।
- फिर तो एक माँ स्कूल में भी गई होगी।
- यानी हमारी चार माँ हैं?
- और एक को सुबह मैंने कपड़े धोते हुए भी देखा था।
- मतलब पाँच हैं?
- हाँ।
- यानी घर में हम आठ लोग हैं?
पिताजी ने बीच में कहा- नहीं, चार ही हैं।
- पिताजी आपका पेट दर्द कैसा है?
पिताजी बीच में बोले तो मुझे याद आया।
- खाना खाने के बाद हल्का हल्का होता है। आजकल जी कुछ ठीक नहीं रहता।
पिताजी अपना पेट पकड़कर सहलाने लगे। लता उनके लिए पानी लाने चली गई। मैंने कहा कि मेरे भी सीने में बहुत दर्द रहता है। उन्होंने सुना नहीं। लता ने रसोई में से ही सुन लिया था। वह दो गिलास पानी लेकर आई। स्टेनलेस स्टील के गिलास थे जिनपर लता का नाम खुदा हुआ था।
मैंने उससे पूछा, “पानी पीने से दर्द ठीक हो जाता है?”
पिताजी ने कहा, “नहीं, दवा खाने से भी नहीं होता।”
मैंने कहा, “आजकल नकली दवाइयाँ बहुत बनने लगी हैं।” मेरी इस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। हम दोनों ने पानी पी लिया।
तकलीफ़ के बदले तकलीफ़ देना प्यार के बदले प्यार देने से ज़्यादा ज़रूरी लगता था। रागिनी एक लड़की का नाम था जिसके दो हाथ, दो पैर, दो आँखें, दो कान, दो वक्ष, एक नाक, एक माथा, एक सिर था। रागिनी पहली लड़की नहीं थी, जिससे मुझे प्यार हुआ, और न ही आखिरी थी। वह सब लड़कियों जैसी थी। अब मुझे लगता था कि वह बुरी थी। जिन जिन लड़कियों से मैंने प्यार किया था वे बेहद स्वार्थी लड़कियाँ थीं। उनमें और लड़कियों से अलग कुछ भी नहीं था इसलिए मुझे सब लड़कियाँ बुरी लगने लगी थीं। लेकिन ऐसा सबको नहीं लगता था। ऐसा सबको नहीं लगता था इसलिए इसे खुलकर कहना फ्रस्ट्रेशन कहा जाता। लेकिन ऐसा था। ऐसा था तो लता भी बुरी लड़की होगी। मेरी अच्छी बहन बुरी लड़की लता गिलास लेकर चली गई।
लता जाते जाते बोली- आज यस बॉस आएगी।
हम सबने अनसुना कर दिया। पिताजी अख़बार उठाकर पढ़ने लगे। मैं उठकर अपने जूते पॉलिश करने चल दिया। लता एक पुराना और एक कम पुराना गाना गुनगुनाने लगी। ऐसे जैसे कि गीत की किसी पंक्ति को गलत सुनकर ‘आज यस बॉस आएगी’ समझ लिया गया हो।
आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे हर जबान पर...
और नया गाना चालू सा था। वह उसने कुछ मन्द आवाज़ में गाया।
आज अभी इसी वक़्त ही मुझको पता चला है...कि मुझे प्यार प्यार प्यार हो गया है...
हमारे घर में बुश कंपनी का एक पुराना टीवी था जिसमें चित्र कभी स्थिर नहीं रहते थे। वे ऊपर से नीचे नदी की तरह लगातार बहते रहते थे। टीवी पर आगे लगी चार घुंडियों में से एक पर वी. होल्ड लिखा हुआ था जिसका अर्थ हममें से किसी को नहीं पता था। उसको घुमाने से नदी का प्रवाह धीमा और तेज होता था और एक सीमा के बाद प्रवाह की दिशा भी उलट जाती थी। हम उसको झटके से लगातार दोनों तरफ ऐसे घुमाते थे जिससे पर्दे पर दृश्य लगभग स्थिर दिखता रहे। यह बहुत मेहनत और धैर्य का काम था। इसके लिए एक व्यक्ति को टीवी के बराबर में बैठे रहना पड़ता था। सब टीवी देख रहे होते थे तो मैं और लता बारी बारी से यह ज़िम्मेदारी संभालते थे। अकेले टीवी देखना बहुत मुश्किल काम लगता था। हम बड़े होते गए तो हमारा टीवी देखना कम होता गया। हमें टीवी न देखने का शौक हो गया था। ‘यस बॉस’ लता की फ़ेवरेट फ़िल्म थी जो उसने कभी नहीं देखी।
मैं और पिताजी शाम को घूमने गए। ऐसा कई सालों बाद हुआ था कि हम बिना काम के एक साथ घर से बाहर निकले हों। मैं लाल दरवाजा, रामनाथ पुल, श्रीकृष्ण मन्दिर, गोल बाज़ार, शहद की छतरी और शहर की और भी बहुत सारी जगहों से बचता था। जिन जिन जगहों पर रागिनी की यादें चिपकी हुई थीं, उन जगहों के पास जाते ही आत्महत्या के ख़याल आते थे। मूंगफली खाना भी मर जाने जैसा लगने लगा था। मुझे लगने लगा था कि मैंने एक बार और प्यार किया तो इस छोटे से शहर में मेरे जाने को कोई जगह नहीं बचेगी। मुझे लगता था कि इसीलिए ज़्यादातर लोग नौकरियों के बहाने से अपने बचपन और जवानी का शहर छोड़ देते होंगे। नए शहरों में नए प्रेम होते होंगे। फिर कुछ साल बाद पैसे देकर तबादला करवाना पड़ता होगा। जिनके पास तबादले के पैसे नहीं होते होंगे, उन्हें खुदकुशी के ख़याल के साथ जीना पड़ता होगा। मैंने अपने पिता की ओर देखा। वे बीस साल से इसी शहर में थे। उनके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ रही थीं। वे और दुबले होते जा रहे थे।
- पिताजी आपने कभी कछुआ देखा है?
- नहीं।
- आप पढ़ाते तो थे कि बहुत धीरे धीरे चलता है कछुआ।
- रोज़गार समाचार देखता रहता है ना?
- हाँ पिताजी। हरियाणा में वेकेंसी निकली हैं।
- वहाँ तो पैसा चलता है बस।
- पैसा कैसे चलता होगा? कछुए की तरह धीरे धीरे तो नहीं ना?
उन्हें नहीं सुना।
आधी बातें बिना सुने भी जीवन उसी तरह जिया जा सकता था। वैसे भी हमारे शहर में सुनने को ज़्यादा बड़ी बातें नहीं होती थीं। दो पड़ोसी एक कीकर के पेड़ को लेकर सालों तक झगड़ते रहते थे और फिर अगली पीढ़ी जवान होकर लड़ने लगती थी। लड़के अनजान लड़कियों के लिए झगड़ बैठते थे और हॉकी स्टिक और लाठियाँ लेकर आ जाते थे। अनजान ‘बुरी’ लड़कियों को अक्सर ख़बर भी नहीं होती थी और ख़बर हो जाती थी तो यह गर्व का विषय होता था। लड़के बसों की यात्रा मुफ़्त करवाने के लिए कभी कभार स्कूल कॉलेजों में दस बीस दिन की हड़ताल भी कर देते थे। किसी दिन सरकारी स्कूल का कोई शिक्षक अपने ही छात्रों के हाथों पिट भी जाता था। बसें और सिनेमाहॉल जी भर के तोड़े जाते थे। कोल्ड ड्रिंक की बोतलें उठाकर भाग जाना होता था। पुलिस आँसू गैस छोड़ती थी। आँसू गैस नाइट्रस ऑक्साइड नहीं थी। नाइट्रस ऑक्साइड हँसाने वाली गैस थी लेकिन कुछ भी करवाने वाली गैस का नाम पूछा जाए तो नाइट्रस ऑक्साइड का नाम ही दिमाग में सबसे पहले आता था। नाइट्रस ऑक्साइड की दुनिया में भारी कमी हो गई लगती थी। पुलिस हँसाने वाली गैस छोड़ती तो शायद दुनिया ज़्यादा बेहतर बन सकती थी।
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मैं ईश्वर |
दुखों के बीहड़ में
मैं अपने साथ तुम्हारी आत्महत्या करना चाहता हूँ
मुझे तुम्हारी आंखों के रंग का दृष्टिभ्रम होता है
नाखूनों से अँधेरा खुरचता हुआ
तुम्हारी देह की सड़क में टटोलता हूँ दसों दिशाएं
और ग्यारहवां घर,
मैं अपनी सघन कुंठाओं से
तुम्हें बनाना और तोड़ देना चाहता हूँ
रात के तीसरे पहर में
मैं ईश्वर हूँ
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पापा जल्दी घर आ जाओ |
मार्च की बारह तारीख को उन दोनों की शादी हो गई। मार्च की बारह तारीख को बृहस्पतिवार था। मैं उदास था। मेरा मन नहीं लगता था। मैंने कोई नौकरी कर लेने की सोची। साथ ही मैंने सोचा कि नौकरी करके आज तक कोई करोड़पति नहीं बना इसलिए नौकरी वौकरी में कुछ नहीं रखा है। मेरा एक बार कश्मीर घूम आने का मन था, थोड़ी सी जल्दी भी थी। अख़बार में रोज युद्ध की संभावना की ख़बरें आती थीं और मैं कश्मीर के उस पार या आसमान के पार चले जाने से पहले उसे एक बार देख लेना चाहता था। मेरे पास पैसे नहीं थे। मेरे पिता स्कूल मास्टर थे। वे ‘धरती का स्वर्ग’ नामक पाठ पढ़ाते हुए कश्मीर का बहुत अच्छा वर्णन करते थे लेकिन मुझे लगता था कि उन्होंने कभी कश्मीर के बारे में सोचा नहीं होगा। अशोका पास बुक्स वाले उन्हें हर कक्षा की एक ‘ऑल इन वन’ उपहार में दे जाते थे तो उन्हें बहुत खुशी होती थी। लेकिन वे जोर से नहीं हँसते थे। उनके पेट में दर्द रहने लगा था। जब हम छोटे थे तो वे कभी कभी गुस्से में बहुत चिल्लाते थे। माँ कहती थी कि उस चिल्लाने की वज़ह से ही उनके पेट में दर्द रहने लगा है। डॉक्टर उसे अल्सर बताते थे। डॉक्टरों को लगता था कि वे सब कुछ जानते हैं। माँ को भी अपने बारे में ऐसा ही लगता था।
डॉक्टर बनने के लिए बहुत सालों तक चश्मा नाक पर टिकाकर मोटी मोटी किताबें चाट डालनी पड़ती थीं। हमारे राज्य में उन दिनों पाँच मेडिकल कॉलेज थे जिनमें छ: सौ सीटें थीं। जनरल के लिए कितनी सीटें थीं, यह पता लगाने के लिए बहुत हिसाब किताब करना पड़ता था। अधिकांश लोग जनरल ही थे। बाकी लोगों में से कोई खुलकर अपनी जाति नहीं बताता था इसलिए भी ऐसा लगता होगा कि अधिकांश लोग जनरल ही थे। ब्राह्मण दोस्त के सामने कुम्हार दोस्त कुछ दबा सा रहता था लेकिन फिर भी अपना कुम्हार होना, अपने चमार होने जितना शर्मनाक नहीं लगता था। बनिया होना परीक्षा में मुश्किल से पास होना था लेकिन फिर भी बनिया होना खुलकर स्वीकार किया जाता था।
हमारे कस्बे में एक बहुत विश्वसनीय अफ़वाह थी कि उस परीक्षा की तैयारी करते करते एक लड़की पागल भी हो गई थी। उस लड़की का नाम किसी को नहीं पता था। किसी को पता होता तो मैं उससे एक बार मिलना चाहता था। वह लड़की किस जाति की थी, यह भी पता नहीं चल पाता था।
माँ कानों के हल्के से कुंडलों और चाँदी की घिसी हुई पायलों के अलावा कोई गहना नहीं पहनती थी। माँ को गहने न पहनने का शौक हो गया था। मुझे सिनेमा न जाने का शौक हुआ था और मेरी बहन लता को अचानक नए कपड़े न खरीदने का शौक हो गया था। उसकी उम्र तेईस साल थी। वह एम एस सी करके घर बैठी थी और ब्यूटी पार्लर का काम सीख रही थी। कुछ न कुछ करते रहना एक ज़रूरी नियम था। वह पच्चीस तरह से साड़ी बाँधना सीख गई थी। मुझे एक ही तरह से पैंट पहननी आती थी। कभी कभी उसमें भी टाँगें देर तक फँसी रहती थीं। मैं बीएड कर चुका था और भाजपा की नई सरकार के इंतज़ार में था। मुझे उम्मीद थी कि नई सरकार आएगी तो थर्ड ग्रेड की खूब भर्तियाँ निकलेंगी। विधांनसभा चुनाव होने में एक साल बाकी था। मुझे लगता था कि पिताजी चाहते होंगे कि तब तक मैं किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ा लूं लेकिन उन्होंने ऐसा कभी कहा नहीं था। माँ कहती थी कि भाजपा कर्मचारियों के हित की पार्टी है। माँ भी एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थी जिसकी नीतियों में सरकार बदलने से कोई खास फ़र्क नहीं पड़ता था। माँ को अख़बार पढ़ना बहुत अच्छा लगता था लेकिन हमने घर में अख़बार नहीं लगवा रखा था। पिताजी कभी कभी स्कूल से पिछले दिन का अख़बार उठा लाते थे। उस शाम हम सब को बहुत अच्छा लगता था। हालांकि पिताजी के स्कूल में ‘राजस्थान पत्रिका’ आती थी और माँ को ‘भास्कर’ ज़्यादा पसंद था।
किसी किसी इतवार को मैं सुबह घूमकर लौटते हुए अड्डे से ‘भास्कर’ भी खरीद लाता था। बाकी दिन का डेढ़ रुपए का और शनिवार, इतवार का ढ़ाई रुपए का आता था। उन दो दिन साथ में चिकने कागज़ वाले चार रंगीन पन्ने होते थे।
माँ कभी कभी बहुत बोलती थी और कभी कभी बहुत चुप रहती थी। स्कूल के टाइम को छोड़कर माँ हमेशा घर में होती थी इसलिए घर में रहो तो माँ के होने का ध्यान नहीं रहता था। बाहर जाकर माँ की बहुत याद आती थी। मैं सोचता था कि आज घर लौटकर उसे बताऊँगा कि तेरी याद आई, लेकिन घर आने पर फिर उसके होने का ध्यान चला जाता था। रागिनी कहीं नहीं होती थी इसलिए उसकी याद दिन भर आती थी। मुझे लगता था कि वह भी घर में रहने लगती तो चार छ: महीने बाद उसकी याद भी बाहर आती और घर में उसे भूल जाया करता।
पिताजी बोर्ड की परीक्षा की खूब सारी कॉपियाँ मँगवाते थे। हर उत्तरपुस्तिका को जाँचने के दो रुपए मिलते थे। मई और जून में मैं, माँ और लता उनके साथ मिलकर पूरी दोपहर कॉपियाँ जाँचते थे। किसी किसी कॉपी में सिर्फ़ एक पत्र मिलता था जो जाँचने वाले अज्ञात गुरुजी के नाम होता था। अक्सर वह गाँव की किसी तथाकथित लड़की द्वारा लिखा गया होता था जो घरेलू कामों में फँसी रहने के कारण ठीक से पढ़ाई नहीं कर पाई होती थी और जिसकी सगाई का सारा दारोमदार उसके दसवीं पास कर लेने पर ही होता था। आखिर में आदरणीय गुरुजी के पैर पकड़कर निवेदन किया गया होता था और कभी कभी दक्षिणास्वरूप पचास या सौ का नोट भी आलपिन से जोड़कर रखा होता था। माँ उन रुपयों को मंदिर में चढ़ा आती थी। मैं और लता ऐसी कॉपियों पर बहुत हँसते थे। पिताजी ऐसी पूरी खाली उत्तरपुस्तिकाओं में किसी पन्ने पर गोला मारकर अन्दर सत्रह लिख देते थे।
रागिनी एक दिन लाल किनारी वाली साड़ी में बाज़ार में दिखी थी। वह कार से उतरी थी। कार में उसका पति बैठा होगा। मैं काले शीशों के कारण उसे नहीं देख पाया। रागिनी ने मुझे देखा और उसकी नज़र एक क्षण के लिए भी मुझ पर नहीं ठहरी। ऐसा करने के लिए मानसिक रूप से बहुत मजबूत होने की आवश्यकता थी। मैं ऐसा कभी नहीं हो सकता था। फिर वह सुनार की दुकान में घुस गई। कार का नम्बर ज़ीरो ज़ीरो ज़ीरो चार था। मुझे बहुत दुख होता था। मुझे दुख का शौक हो गया लगता था। मैं भिंडी खरीद रहा था जिसका भाव सोलह रुपए किलो था। वह सोना खरीद रही थी जिसका भाव मुझे नहीं मालूम था। उसे भी भिंडी का भाव नहीं मालूम होगा। मैंने तराजू में से दो तीन खराब भिंडी छाँटकर अलग की और आधा किलो के सात रुपए दिए। सब्जी वाला बहुत मोटा आदमी था और उसकी एक आँख नहीं खुलती थी। वह हँसता भी नहीं था। रागिनी तुरंत ही बाहर निकल आई। शायद लॉकेट वगैरह बनना दिया होगा जो बना नहीं होगा। इस बार उसने मेरी ओर नहीं देखा। कार का दरवाजा खुला। ड्राइविंग सीट पर एक पीली टी शर्ट वाला आदमी दिखा। रागिनी उसकी बगल में ही बैठ गई थी। फिर उसने ऊपर लगा शीशा कुछ ठीक किया और दरवाजा बन्द कर लिया।
उस रात मुझे कई सपने दिखे। एक में मैं जादूगर था। मैं लड़की को बीच में से आधा काटने वाला जादू दिखाने ही वाला था कि लड़की मेरे हाथ से माइक छीनकर मेरे जादू की असलियत दर्शकों को बताने लगी। दर्शक एक एक करके उठकर चले गए और पूरा हॉल खाली हो गया। फिर वह लड़की जोर से हँसी। फिर उस लड़की में मुझे रागिनी का चेहरा दिखा, फिर कुछ देर बाद माँ का, फिर कुछ देर बाद लता का।
दूसरे सपने में मैं ट्रक ड्राइवर था। मेरी एक आठ नौ साल की बेटी थी। मैं रोज रात को देर से घर आता था। तब तक मेरी बेटी सो जाती थी। सुबह उसके उठने से पहले मैं निकल जाता था। कई बार बहुत दिन में घर आना होता था। बहुत दिन का सपना एक ही रात में एक साथ दिख गया था। मैं दिन भर बहुत गालियाँ देता था और बहुत गालियाँ खाता था। मेरा रोने का मन होता था तो हाइवे पर किसी ढाबे वाले को कहकर लड़की का इंतज़ाम करवा लेता था। लड़की हर दुख की दवा थी। मुझे मेरी बेटी की भी बहुत याद आती थी। उसकी आवाज सुने हफ़्तों बीत जाते थे। एक ही सपने में हफ़्ते भी दिख गए थे। एक दिन मैं घर लौटा तो मेरी पत्नी ने मुझे एक कागज़ दिया जो रात को सोने से पहले मेरी बेटी ने उसे मेरे लिए दिया था। टूटी फूटी लिखाई में दो लाइनें लिखी थीं।
नदी किनारे बुलबुल बैठी, दाना चुगदी छल्ली दा।
पापा जल्दी घर आ जाओ, जी नहीं लगदा कल्ली दा।
फिर मैं बहुत रोया और जग गया। सच में रागिनी की बहुत याद आती थी। सोने का भाव दस हज़ार के आस पास कुछ था।
यह 'ब्लू फ़िल्म' नामक कहानी का दूसरा अंश है। पहला अंश 'जामुनी जादू' आप पहले ही पढ़ चुके हैं।
[+/-] |
छलती हुई स्त्रियों के ख़िलाफ़ |
भरभराकर टूटेगा विश्वास बार बार
और क्या हम ब्लू फ़िल्में
या कम से कम ‘नच बलिए’ देखकर
और इतवारी अख़बारों के रंगीन पन्ने बाँचकर
हर बार रोकेंगे रुलाई, बहलाएँगे जी को
या कमज़ोर चिट्ठियाँ लिखेंगे और पोस्ट कर आएँगे
उदास भीड़ से भरे पुराने डाकखानों के बाहर टँगे
अकेले लाल बक्सों में?
तमाम विषमताओं के बावज़ूद
हमें भगवान में आस्था
और प्रेम में पुरुष बचाकर रखना होगा
किसी भी तरह।
शरीरों के नाजुक क्षण में
और उसके बीतने के बाद के घंटों में
हमें निराश भावुकता को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा।
यह आवाज़ की मधुरता,
कला पर थोपी गई नैतिकता,
प्यार की बेवकूफ़ मासूमियत,
विवाह की बासी पवित्रता
और छलती हुई स्त्रियों के ख़िलाफ़ हमारी आग होगी
जिसमें हम उनकी आँखें नहीं
स्तन याद किया करेंगे।
दम घुटने से पहले
हमें पी जाना चाहिए साँस भर कमीनापन।
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जामुनी जादू |
जिस तरह ज़रूरी नहीं कि चाट पकौड़ियों की सब कहानियाँ करण-जौहरीय अंदाज़ में चाँदनी चौक की गलियों से ही शुरु की जाएँ या बच्चों की सब कहानियाँ ‘एक बार की बात है’ से ही शुरु की जाएँ या गरीबी की सब कहानियाँ किसानों से ही शुरु की जाएँ या कबूतरों की सब कहानियाँ प्रेम-पत्रों से ही शुरु की जाएँ, उसी तरह ज़रूरी नहीं कि सच्चे प्रेम की सब कहानियाँ सच से ही शुरु की जाएँ। इसीलिए मैंने रागिनी से झूठ बोला कि वही पहली लड़की है, जिससे मुझे प्यार हुआ है। ऐसा कहने से तुरंत पहले वह अपने विश्वासघाती प्रेमी की कहानी सुनाते सुनाते रो पड़ी थी। “तुम रोते हुए बहुत सुन्दर लगती हो”, यह कहने से मैंने अपने आपको किसी तरह रोक लिया था। फिर मैंने उसके लिए एक लैमन टी मँगवाई थी। मैंने सुन रखा था कि लड़कियों को खटाई पसन्द होती है, खाने में भी और रिश्तों में भी।
उसे कोई मिनर्वा टाकीज पसन्द था। मुझे बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि यह इमारत दुनिया के किस कोने में है। वह देर तक उसके साथ वहाँ बिताए हुए ख़ूबसूरत लम्हे मुझे सुनाती रही। बीच में और एकाध बार मैंने दोहराया कि वही पहली लड़की है, जिससे मुझे प्यार हुआ है। मेरी आँखें उसकी गर्दन के आसपास कहीं रहीं, उसकी आँखें हवा में कहीं थीं। मैंने सुन रखा था कि लड़कियों के दिल का रास्ता उनकी गर्दन के थोड़ा नीचे से शुरु होता है। मैं उसी रास्ते पर चलना चाहता था। वैसे शायद सबके दिल का रास्ता एक ही जगह से शुरु होता होगा। सबका दिल भी एक ही जगह पर होता होगा। मैंने कभी किसी का दिल नहीं देखा था, लेकिन मैं फिर भी इस बात पर सौ प्रतिशत विश्वास करता था कि दिल सीने के अन्दर ही है। हम सब को इसी तरह आँखें मूँद कर विश्वास करना सिखाया गया था। हम सब मानते थे कि जो टीवी में दिखता है, अमेरिका सच में वैसा ही एक देश है। यह भी हो सकता है कि अमेरिका कहीं हो ही न और किसी फ़िल्म की शूटिंग के लिए कोई बड़ा सैट तैयार किया गया हो, जिसे अलग अलग एंगल से बार बार हमें दिखाया जाता रहा हो। जो लोग अमेरिका का कहकर यहाँ से जाते हों, उन्हें और कहीं ले जाकर कह दिया जाता हो कि यही अमेरिका है और फिर इस तरह एमिरलैंड अमेरिका बन गया हो। क्या ऐसा कोई वीडियो या तस्वीर दुनिया में है, जिसमें किसी देश के बाहर ‘अमेरिका’ का बोर्ड लगा दिखा हो? लेकिन टीवी में देखकर विश्वास कर लेना हमारी नसों में इतने गहरे तक पैठ गया था कि कुछ लोग अमेरिका न जा पाने के सदमे पर आत्महत्या भी कर लेते थे। ऐसे ही कुछ लोग प्रेम न मिलने पर भी मर जाते थे, चाहे प्रेम सिर्फ़ एक झूठी अवधारणा ही हो।
लेकिन डॉक्टर समझदार थे। कभी किसी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में नहीं लिखा गया कि अमुक व्यक्ति प्यार की कमी से मर गया। यदि दुनिया भर की आज तक की सब पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट देखी जाएँ तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि दुनिया में हमेशा प्यार बहुतायत में रहा। लोग सिर्फ़ कैंसर, पीलिया, हृदयाघात और प्लेग से मरे।
वह एक पुराना शहर था जिसे अपने पुराने होने से उतना ही लगाव था जितना वहाँ की लड़कियों को अपने पुराने प्रेमियों से। रागिनी ने मुझे समझाया कि लड़के कभी प्यार को नहीं समझ सकते। मैंने सहमति में गर्दन हिलाई। गर्दन के थोड़ा नीचे मेरे दिल तक जाने वाला रास्ता भी उसके साथ हिला। फिर हम एक मन्दिर में गए, जिसके दरवाजे पर कुछ भूखे बच्चे बैठे हुए थे। अन्दर एक आलीशान हॉल में सजी सँवरी श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने वह सिर झुकाए कुछ बुदबुदाती रही। मैं इधर उधर देखता रहा। जब हम लौटे तो भूखे बच्चे भूखे ही बैठे थे। उनमें से एक ने दूसरे को एक भूखी गाली दी, जिस पर भड़ककर दूसरे ने पहले के पेट पर एक भूखा घूंसा मारा। और बच्चे भी लड़ाई में आ मिले। वहाँ भूखा झगड़ा होता रहा। अपने में खोई रागिनी ने यह सब नहीं देखा। मैंने जब उसे यह बताया तो उसने कहा कि भूख बहुत घिनौना सा शब्द है और कम से कम मन्दिर के सामने तो मुझे मर्यादित भाषा का प्रयोग करना चाहिए। यह सुनकर मेरा एक भूखा सपना रोया। मैं हँस दिया। वहीं पास में एक सफेद पानी की नदी थी जो दूध की नदी जैसी लगती थी। सर्दियों की रातों में जब उसका पानी जमने के नज़दीक पहुँचता होगा तो वह दही की नदी जैसी बन जाती होगी। उस नदी के ऊपर एक लकड़ी का पुल था जिस पर खड़े होकर लोग रिश्ते तोड़ते थे और दो अलग अलग दिशाओं में मुड़ जाते थे। उस पुल का नाम रामनाथ पुल था। मुझे लगता था कि रामनाथ बहुत टूटा हुआ आदमी रहा होगा।
हम उस पुल के बिल्कुल बीच में थे कि एकाएक रागिनी रुककर खड़ी हो गई। रिश्ते टूटने वाला डर मुझे चीरता हुआ निकल गया। वह पुल के किनारे की रेलिंग पर झुकी हुई थी। फिर उसने कुछ पानी में फेंका, जो मुझे दिखा नहीं।
मैंने कहा- रागिनी, तुम ही दुनिया की एकमात्र ऐसी लड़की हो, जिससे प्यार किया जा सकता है। वह गर्व से मुस्कुराई। वह मुस्कुराई तो मुझे अपने कहने के तरीके पर गर्व हुआ।
वह एक ख़ूबसूरत शाम थी, जिसमें एक अधनंगी पागल बुढ़िया पुल पर बैठकर ढोलक बजा रही थी और विवाह के गीत गा रही थी। कॉलेज में पढ़ने वाले कुछ लड़के वहाँ तस्वीरें खिंचवा रहे थे। रागिनी ने अपना दुपट्टा हवा में उड़ा दिया जो सफेद पानी में जाकर गिरा। उसका ऐसा करना उन लड़कों ने अपने कैमरे में कैद कर लिया। चार लड़कों वाली फ़ोटो के बैकग्राउंड में दुपट्टा उड़ाती रागिनी।
उन चारों लड़कों को उससे प्यार हो गया था। वे जीवन भर वह तस्वीर देखकर उसे याद करते रहे। उन्होंने एक दूसरे को यह कभी नहीं बताया।
फिर रागिनी ने अपना मुँह मेरे कान के पास लाकर धीरे से कहा कि वह मुझे कुछ बताना चाहती है। उसके कहने से पहले ही मैंने आँखें बन्द कर लीं। उसने हाथ हवा में उठाकर कोई जादू किया और उसके हाथ में शादी का एक कार्ड आ गिरा। वह जादू जामुनी रंग का था जिस पर लिखा था, ‘रागिनी संग विजय’।
यह बहुत पहले ही किसी ने तय कर दिया था कि सब शादियों के निमंत्रण पत्र गणेश जी के चित्र से ही शुरु किए जाएँ। कहानी यहीं से आरंभ हुई।
[+/-] |
दिल डूबता है |
पेड़ के पास हो पेड़,
कुत्ते के पास कुत्ता,
शहर के पास शहर
और हे ईश्वर!
आदमी के पास हो कम से कम एक आदमी
जब दुख हो,
रोना आए।
थम जाएँ सडक पर चलने वाले
जैसे बजता हो राष्ट्रगान,
जो ज़्यादा हँसते हों
रुक जाएँ साँस लेने के बहाने,
बिजली कड़के, बारिश हो
तार पर से ख़ुद-ब-ख़ुद उतर आएँ सूखे कपड़े,
हम मोर हों या साइकिल
या इत्मीनान से देख रहे हों रंगीन टीवी
या हाँडी में चढ़े हों दूध बनकर
या सर्दी हों, पहाड़ हों
छत हों, ख़त हों
धूप हों गुनगुनी
जैसे तवे को छू जाए अँगूठा
या मैदे में गुंथे हों,
शर्म से कीचड़ कीचड़ चाहे गटर में गिरे हों
या शीशे हों और बिन्दी-टिक्की,
भले ही गुलमोहर हों या गुल पनाग
या शीशम हों, स्याही हों,
अनाथ हों, बेबस हों,
भीगते हों, छीजते हों,
टूटकर गिर पड़े हों जूठे बर्तनों में,
गलियाए जाएँ, लतियाए जाएँ
और माँगते हों टूक टूक भीख
चाहे कुछ भी हों
पर किया जाए ज़रा रहम ऐ मालिक,
जब रोते हों और बँधी हों हिचकियां
तो अकेले न हों,
चुप करवा जाए कोई आता जाता
या माँ हो
या कोई प्यार करे,
चाहे पैसे ले ले।
दिल डूबता है।
मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूं।
सिर धुनता हूं,
माफीनामों पर करता हूं लम्बे दस्तख़त।
प्लीज़ चमकने दो दो-चार इंच सूरज,
दो चार किताबें बख़्श दो
और एक आँख देखने को।
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यहाँ से देखो |
यहाँ से देखो
जहाँ मैं हूं
और मेरा अकेला होना है।
जेल का आखिरी मुलाक़ाती
शरबत पीने की तीव्र चाह में घर लौट जाना चाहता है
और तुम उधर से देखते हो
जहाँ शामियाने, कहकहे और दावतें हैं।
सींखचों के इस पार से देखो ना
जहाँ मैं हूं,
आँखें मलता, झिपझिपाता,
चुप।
मुझे निर्विकार रहकर
कहनी हैं दो चार भली बातें,
उम्मीद बचाए रखनी है
मानवता के ख़त्म होने की आशंका के बीच,
मुझे बचाए रखनी हैं
अपने नाचने और गाने की संभावनाएँ
और जबकि मैं बर्फ़ सा स्तब्ध हूं,
मुझे पूछनी हैं उससे
उसके बच्चों की कक्षाएँ
और गाड़ी की माइलेज़।
ऐसा नियम है।
इस सदी की सबसे ज़रूरी बातें
मैं मुस्कुराती हुई मधुमक्खियों पर ज़ाया कर चुका हूं
और सैनिक विद्रोहों की ख़बरों के बीच
जब मैं बाघ की तरह लुप्त हो जाना चाहता हूं,
मुझे महान बनना है
और दिखाई देते रहना है।
मैं सपने में देखता हूं
लकड़ी के गीले पुल,
टूटती हुई नदियाँ,
रुकी हुई रेलगाड़ियों की छतें लाँघकर
उस पार जाते बच्चे
और निर्मम हत्याएँ।
यहाँ बैठकर देखो,
जहाँ सपने हैं,
कारण और ईश्वर नहीं हैं,
ज़बरदस्ती के सवेरे हैं
और है सूर्य को अर्घ्य देना।
यहाँ से देखो
जहाँ मृत्यु है
और बार बार खीसें निपोरकर जताते रहनी है ख़ुशी
और नर्म आवाज़ में कहना है कि
प्यार से गले तक छके हैं हम।
(केदारनाथ सिंह के कविता संग्रह ‘यहाँ से देखो’ का शीर्षक पढ़ने के बाद)
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रेडियो, आईसक्रीम और लाल गुब्बारे |
हाँ, यह सच है कि
चूड़ीवाली गली के पते पर रात बहुत है,
तुम हो मसरूफ़,
शाम के छ: बजे हैं
और यह दालें उबालने का समय भी हो सकता है।
बन्द हैं आँगनबाड़ियां,
बच्चे और कबूतर् बेबात रोते हैं
और यह दिल को वॉशिंगमशीन की चक्करघिन्नी में धोकर
बालकनी में सुखा देने का समय है।
हम अक्सर बुरे लोगों और निर्मोही बिल्लियों से करते हैं
बहुत सारा प्यार
और उनके इंतज़ार में करते हैं दुर्लभ आत्महत्याएँ।
हम बूढ़े चपरासियों और गर्भवती स्त्रियों का
उम्र भर करते हैं आदर
और सपने देखकर घुटते हुए तहखानों में सोते हैं।
यह एक अजीब विडम्बना है कि
हम अपनी घड़ियाँ, मर्तबान, चश्मे और मोबाइल भी
नहीं तोड़ पाते गुस्से में
और हम सब कुछ तोड़ देना चाहते हैं
और हमारे पास पैसे नहीं हैं।
यह सुन्दर सभ्यताओं के समागम का समय है,
मैं शहर के मध्य में हूं
और लिपस्टिक का स्वाद
प्रेम जैसा क्यों नहीं है?
सच, मैं भूखा नहीं मरना चाहता कोई प्राकृतिक मौत।
मैं फ़ुटपाथ पर बैठकर
तुम्हें करना चाहता हूं बेढंगा प्यार
और तुम्हें सहेजना चाहता हूं।
इस कोलाहल के उपसंहार से पहले
मैं सुनना चाहता हूं तुमसे
तुम्हारा कोई बहुत आम सा दिन,
जिसमें रेडियो, आईसक्रीम और लाल गुब्बारे हों।