मैं सिर्फ़ अपना स्वेटर हूं

वह मेरी ओर ऐसे खड़ा है 
जैसे अपनी पीठ हो वह
मैं सिर्फ़ अपना स्वेटर हूं
और हम दोनों के बीच में जो हवा है
उसमें वह मुझसे उधार माँग सकता है कभी भी
मैं इससे बना रहा हूँ कविता।

मैं सिर्फ़ अपना स्वेटर हूं
में सर्दी कहीं नहीं
लेकिन बुखार उसे शुक्रवार सुबह से है
और दोस्ती की कैंची है उधार, वह कहता है और हँसता है
और पूछता है कि कितने बजे सोते हो अमूमन
जो भी दो जवाब, वह हँसता है
वह तारे देखकर भी हँसता है, बाज देखकर भी।

उसके कॉलर पर एक दाग है दाहिनी तरफ जिसे मैंने नहीं देखा
उसकी पीठ में कहीं दर्द है, रीढ़ है एकदम ठीक
और वह अपनी बातों में कहीं दूर तक जाता है नंगे पांव
यह कल्पना में भी होता कि कंडक्टर कहता
रोको ड्राइवर साहब, एक को उतारना है यहीं
जब भी घर से निकलता तो बताकर निकलता
कि कहाँ रखी अटैची की चाबी, कहाँ माचिसें और,  
क्योंकि कभी भी उठा सकती है पुलिस।

समय उसके लिए लोहा बस, आँख में एक स्थाई सरिया
वह जब रोटी खाता
तो कहता कि वहां जगह इतनी सारी थी, जहां था उसका बचपन
और दो अच्छे बच्चे नहीं खेल सकते थे क्रिकेट
कि शीशे टूटते हैं और बल्ब, सन्नाटा
कि वह घर किसी और का था, जो उसका था


और वह हँसता कि बूंद बूंद पानी से नहीं भरता घड़ा 
घड़ा अपने बार-बार टूटने से भरता है।

छायाएँ किसी भले आदमी की तरह आती हैं अक्सर
और सबसे सम्पूर्णता से शिकार करती हैं।
 
जिस उस्तरे से नहीं कटती गर्दन हर बार
उसी से कटती है, जब भी कटती है।

कैमरा शीशों से डरता है
क्योंकि बस वही उसका चेहरा पहचानते हैं।

आखिर में वह जब खड़ा होता है
तो जैसे अपने शब्दों को पीठ से उतारता है
और पूछता है कि कितना पैसा है किताब में
और मैं बताता हूँ कि कैसे लिखी जाती हैं किताबें

जबकि इसके बारे में
मुझे ठीक से नहीं मालूम एक भी बात।