बहन का कमरा

लोहा दाँतों से काटते थे सच्ची
पर कोई वीडियो नहीं उसका हमारे पास
बेचने को ठीक ठाक तंदुरुस्त शरीर भी नहीं

यह भी ख़ुद बताते हुए बेशर्मी से कि कैसे फन्ने खां हैं हम
हम सब ग्यारह बार अकेले जितने अकेले
फिसलकर गिरने की किसी घटना में बचाए नहीं जा सकने वाले अकेले
गुम होने जाते तब भी छोड़ते जाते सुराग वाले अकेले
कि कोई ढूंढ़ने आए क्या पता

फिर भी नहीं आते थे चक्कर, हाथ में घास बहुत थी
रोशनी हर शाम ख़त्म होती थी जैसे मरती हो
फिर भी हमने सीखा था उस पर यक़ीन करना
हफ़्तों तक सीखी साइकिल जैसे हमेशा रहेंगे पैर

भरोसा था उन दिनों
बेहतर थी दुनिया

आधा हमेशा बचा रहता था होना
सब कुछ मारे जाने पर भी
एक आखिरी जीव किसी कोने में बचता था ज़िन्दा
नहीं भूलता हुआ कि दुख कितना भी हो लेकिन बचे रहने से ज़्यादा ज़रूरी नहीं

सुख दिमाग में ही था
बाहर तो था खचाखच भरा होना जिसमें फ्रिज आदमी की जगह लेता था
आदमी पेड़ की

जहाँ मैं सोता था
वो मेरी बहन का कमरा होता अगर वो जन्म लेती