धूप पर दीवार

जैसे किसी अच्छी बात के बीच
दुनिया आए सारी
लाइटें बुझाते हुए आए कोई चौकीदार बूढ़ा
उसके पीछे डर
मैं चेहरा छुपा के रख आऊँ कि आया नहीं था मैं कभी
कि मैं जिस बात के बीच में अटका सौ बार
वो यहाँ, इसी मेज पर रखी रही कल तक
और अब मेरे सिर में है, बनाती पागल
कि सवाल पैदा होते हैं, रोशनी आप चाय में डुबोकर खाते सारी
हम बारी बारी से इत्मीनान रखते हैं
जबकि मैं मारने दौड़ता तुम्हें किसी खेत में
रौंदता घास या आसमान उसके बदले, कौन जाने

कौन जाने कि पानी जब बहता है
तो रोया गया हो, यह ज़रूरी नहीं
कि ज़मीन में कहाँ कुछ कड़वा, कौन मुकरता और हँसता बेशर्म

आप मरें नहीं, इसी बार हैं सब त्योहार

वे दौड़ते जबकि पुलिस कहीं भी नहीं
तैरते और सरसों के उस खेत में जीते बेतहाशा
नहीं पलटते जबकि हमें खींचनी थी एक तस्वीर
सब ज़ीरो और मैं नहीं बना सकता एक भी आवाज़

हम जहाँ हैं वहाँ लौटा नहीं जा सकता
नहीं सकेगा भी
धूप है ये दीवारों पर जैसे पिता से मज़ाक कर सकता हो बच्चा
मैं अपनी आँख में हूँ और बाकी जिस्म पर ठोकता कील

पत्थर फेंकते और ख़त्म होते

गिनती के दिन

हम इसी समय अपनी याद हैं