पेड़ मेरे घर में पर क्या

बस में बीच की सीट चुनता
जबकि खिड़की से आती हवा, कौन नहीं जानता फूल अच्छे होते हैं की तरह

नींद आती तो नींद में कुर्बान करता मैं दस बीस जन्नत
कि एक माँगता बच्चा कुछ मुझसे
और देने को मेरे पास हिरण भी नहीं, ना खिलौना
उसकी एक तस्वीर बस
पास आते हुए की तस्वीर में तुम दीवार पर स्थिर
मैं अकेला, तोड़ता घर
वे मुझे लेने आते लेकर सांकलें

मैं कहना चाहता कि रोटियाँ पेड़ पर उगती हैं
लाशें ज़रूर चलती हैं, मौत आती है किसी अनजान की तरह हमेशा
लोगों से पूछती हुई घर, धक्के खाती, टकराती हुई
घंटी बजाती हुई जिसे मैं सोचता कभी कभी कि मकान मालिक
और बाहर शामियाना या दावत
और पिता, जो हँसते हुए लौटते, पूछते कि कमाते कितना
मैं कहता कि सोना
माँ कुछ नहीं सुनती, बस समेटती और फेंकती जाती पुराने कपड़े

लकड़ी इतनी बेजान कि मैं माँगूं शरण तो शर्म आए
जैसे दरवाजे के बीच किसी
छूटी मेरी फँसी रह गई उंगलियाँ
पेड़ मेरे घर में पर क्या जब मैं उसके तने से लगकर रो सकता नहीं

मुझे कोई दुख कहाँ, यह नसीब अपना अपना की फ़िल्म कोई
कि जीवन इससे नहीं चलता पूछकर
कि कितने ख़त्म, कहाँ गिरे, कितने इंच छिली आपकी खाल

माँ, आओ और कुछ लगाओ मेरे पैर पर

यक़ीन नहीं होता था कि ये दिन देखेंगे
लेकिन देखते जैसे देखी थी पहली बार सड़क
बाहर से लगता सच्ची बहुत डर
पर मैं फिर निकलता कि कब तक रहेंगे ऐसे गुम

यह किराए का मकान जिसके दरवाजे घिसते जाते
मैं बार-बार भूलता कि लौटते हुए लाने हैं फल