इतना निहत्था कि डर नहीं

हमारे हाथों में काँपते हुए चौबारे
फव्वारों में जमा होती उदासी
पूछना पानी तो बताना पागलपन
लौटकर आती हुई पुरानी तस्वीरों में
हँसी इतनी बरकरार
कि झूठी

नई दीवार पर बैठकर पुराना गिरना
पुराने जोश में माँगना नए कर्ज़
बीच में होना अपमानित
और भाषण देना

नदी हुई जाती हैं घटनाएँ
जिनमें हम बाढ़ होने से बचते हुए
जूते उतारकर हाथ में लिए हुए
भूखे और भिखारी
अपने किस्से तलाश रहे हैं, अपना जन्म और अपने खिलौने

सुख की एक कहानी को भूलकर
मैं काँच में गिरता हूं
ढूँढ़ता हूं अपनी आँखें, तुम्हारे जेवर
बंद हो रोशनी तो देख पाऊँ

नए शहर की रेलगाड़ियाँ
सौतेली माँओं जैसी लगती हैं
और मुझे सपने में भी याद है
कि सब्जियाँ खरीदनी हैं
हाँफना नहीं है लौटते हुए
बचाए रखनी है फ़ोन की एक साँस बैटरी
और थोड़ा आत्मसम्मान

हमें हाथ पकड़कर चलना है
खोना है मेलों में
और ढूँढ़ते रहना है घर
जिस पाँच बार बेचा जा चुका,
पिता हुए अमीर और मोटे, माँ जवान

इतना सूखा कि छींटे माथे तक
इतने लोग कि सब लाचार
इतने पिता कि अनाथ सब
इतना प्यार कि ध्वस्त हुईं सब खुशबुएँ, बचपना और चाँद

इतना निहत्था कि डर नहीं



आप क्या कहना चाहेंगे? (Click here if you are not on Facebook)

11 पाठकों का कहना है :

Anamikaghatak said...

इतना सूखा कि छींटे माथे तक
इतने लोग कि सब लाचार
इतने पिता कि अनाथ सब
इतना प्यार कि ध्वस्त हुईं सब खुशबुएँ, बचपना और चाँद

bhav vyanjana ati sundar..........badhai

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

इस वक्त इन्हे जी रहा हू...

संध्या आर्य said...

तस्वीरो की सच खोजती दीवारे
बनावाटी सच पर मिट्टी की खुशबू
आसमान से बरसती अन्नाजो पर
राजनिति के दाल का काला और महंगा हो जाना

बढते भूखे-नंगो की गंगा-जमुनी प्रवाह मे
जीवन को तलाशती आंखे

पिघलती सांसो मे शीशे का घुलना
बिलखती सपनो मे गहराते अंधेरे
माँ की लाठी से गुम होती आवाजे

बढती लोगो की तदाद मे
अकेलापन की बाढ से झुलसती अपनापन

और आनाथ स्पर्श से डर का खत्म हो जाना.....

प्रवीण पाण्डेय said...

जब तक भय ता निदान रहता है, डर बना रहता है। निदान नहीं, मानसिक भय नहीं ।

ZEAL said...

bahut sundar rachna !

Himanshu Mohan said...

"इतना निहत्था कि डर नहीं" अपने आप में एक आख्यान है - एक फ़िलॉसफ़ी। बहुत ख़ूब, बहुत बहुत बधाई इतना अच्छा कह पाने और इतना उम्दा कह जाने के लिए।
वाह!

डॉ .अनुराग said...

बचाए रखनी है फ़ोन की एक साँस बैटरी
और थोड़ा आत्मसम्मान

हमें हाथ पकड़कर चलना है
खोना है मेलों में
और ढूँढ़ते रहना है घर


love these line....

अनिल कान्त said...

....kuchh kahun ?
chalo nahi kahta :)

Unknown said...

वाह॥बेहद सुंदर कविता....

राहुल पाठक said...

Bole to behatareeeen pradarsan ;) :

इतना सूखा कि छींटे माथे तक
इतने लोग कि सब लाचार
इतने पिता कि अनाथ सब
इतना प्यार कि ध्वस्त हुईं सब खुशबुएँ, बचपना और चाँद

इतना निहत्था कि डर नहीं

आभा said...

अच्छी कविता ,ढूढता हूँ अपनी आँखे...बहुत सुन्दर..