प्यार थोड़े ही होगा...

चार दरवाजों वाले तुम्हारे शहर में,
ओह!
सॉरी
तुम्हारे-मेरे शहर में
उस आखिरी बदसूरत सर्द शाम में
कोई सब कुछ पाकर भी
खाली-खाली सा था
और भटकता था बेइरादा,
उन भ्रमित गलियों में,
उन टूटी सड़कों पर
जाने क्या खोजने को,
रास्ते में मिलते
शक्की आँखों वाले शहरियों को
रोकता था एक पता पूछने को
और किसी के पिता का
नाम ही भूल जाता था,
उस दोपहर
अपना प्यार पा लिया था उसने,
फिर उस शाम अँधेरा पड़ने पर
क्यों आदमियों से,
साइकिलों से
टकराता भटक रहा था वो,
आखिरी बार
उस चौराहे पर इंतज़ार किया उसने
सूरज के बुझने तक,
कि बोलती आँखों वाला कोई आए
और चुपचाप मुस्कुराकर निकल जाए,
कोई अगली सुबह
कैद होने वाला था
अपनी ही मोहब्बत में
और उससे पहले गिड़गिड़ाना चाहता था
कि तुम उसके साथ आज़ाद हो जाओ,
उलझा शहर,
उलझे लोग,
उलझे पते!
मैं बेवफ़ा नहीं था,
बस उस शाम
तुम्हारा घर नहीं ढूंढ़ पाया,
और क्या था वो मुझमें-तुममें?
प्यार तो नहीं था?
वो तो एक बार ही होता है ना,
प्यार थोड़े ही होगा...



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7 पाठकों का कहना है :

परमजीत सिहँ बाली said...

एक बढिया रचना है...बधाई।

मैं बेवफ़ा नहीं था,
बस उस शाम
तुम्हारा घर नहीं ढूंढ़ पाया,
और क्या था वो मुझमें-तुममें?
प्यार तो नहीं था?
वो तो एक बार ही होता है ना,
प्यार थोड़े ही होगा...

Anonymous said...

अद्भुत कृति| इस शानदार रचना के लिए बधाई

Dr. sunita yadav said...

और क्या था वो मुझमें-तुममें?
प्यार तो नहीं था?
वो तो एक बार ही होता है ना,
प्यार थोड़े ही होगा...

बहुत ही दर्द है इन पंक्तियों में...सुंदर रचना है
लगता है आप दर्द को अपना लिए हैं जो आप की हर कृति में
बिखर जाता है...रचनाकार की सफलता स्थिति को अनुभूत करने में है
और निसंदेह आपका भविष्य उज्जवल है:-)
सुनीता

kamal said...

वो तो एक बार ही होता है ना,
प्यार थोड़े ही होगा...

ये पंक्तिया टू दिल को छू ही गई ....
यकीनन यही तो प्यार है ...
अति उत्तम रचना ...

Alok said...

बहुत बढ़िया कृति , बधाई के पात्र हैं गौरव जी , उनकी हर आने वाली पंक्ति पिछली पंक्ति से बेजोड़ होती है , गूढ़ अर्थ ठहर जाने के लिए बेबस कर देने वाले ...

संध्या आर्य said...

प्यार एक ही बार होती है.......और तलाश होती है एक रूह का दूसरे रूह मे विलिन होने के संगम को ही ........प्यार कहतेहै......जो मोक्ष होती है दो तडपती आत्माओ का .....................

गौतम राजऋषि said...

कुछ दिनों से लगातार आपको पढ़ रहा हूँ...देर रात गये और जाने किन-किन भाव-भंगिमाओं से गुजरता रहता हूँ।

आपकी लेखनी चमत्कृत करती है गौरव भाई।