ओम शांति ओम


बरसों पहले सुभाष घई साहब ने 'कर्ज़' बनाई थी, जो मेरी पसंदीदा फ़िल्मों में से एक है। अपनी पसंद की फ़िल्मों के रीमेक का यह हश्र देखकर दिल पर जो गुजरती है, वह अलग बात है। खैर, ओम शांति ओम एक शुद्ध मसाला फ़िल्म है और सब्जी में मसाले डालने के चक्कर में फराह ख़ान सब्ज़ी डालना ही भूल गई हैं। फ़िल्म में पुनर्जन्म की वही 'तथाकथित' कहानी है, जो बीच-बीच में कभी-कभी याद आ जाती है और कभी-कभी बहुत देर में याद आती है।
पहली बार ऐसा हुआ कि किसी फ़िल्म को देखते समय लगा कि हम जैसे 'मेकिंग ऑफ ए फ़िल्म' देख रहे हैं। फ़िल्म के गाने बहुत अच्छे हैं और फराह ने विशाल-शेखर और जावेद अख़्तर की मेहनत को पूरी तरह भुनाया है। गानों के बीच-बीच में हल्की फुल्की कॉमेडी या कभी कभी थोड़ी सी कहानी आती जाती रहती है। किसी भी मसाला फ़िल्म की तरह तालियाँ बजाने और सीटी मारने के भरपूर दृश्य हैं, लेकिन उन सबका कोई औचित्य समझ नहीं आता।
अगर आपका दिमाग फ़िल्म देखते समय ज़रा सा भी काम करता है, तो आप बहुत से 'लॉजिकल' सवालों में उलझ सकते हैं, जिनके उत्तर आपको कोई नहीं देगा। इसलिए यदि आप मनोरंजन चाहते हैं तो यह मान लीजिए कि निर्देशक ने आपको एक महान बेवकूफ़ दर्शक मान लिया है, जो यह नहीं पूछेगा कि एक बहुत मशहूर अभिनेत्री की बिल्कुल हमशक्ल लड़की हीरोइन बनने के लिए भटकती रहती है और कोई माई का लाल यह नहीं पहचान पाता कि उसकी शक्ल शांतिप्रिया जी से 100%मिलती है। आखिर हमारे शाहरुख भाई में ही वो पहचानने वाली काबिलियत थी।
'मैं हूँ ना' इससे बहुत बेहतर और कसी हुई फ़िल्म थी। फ़िल्म देखकर हम तो फिर भी अपना ठीक-ठाक मनोरंजन कर ही लेते हैं, लेकिन शाहरुख खान की प्रतिभा के प्रति मन में अफ़सोस होता है। शाहरुख की उम्र निकलती जा रही है और वे करण जौहर और फराह खान सरीखों के चक्कर में पड़कर अपने आप को बर्बाद कर रहे हैं। ऐसे किरदार यकीनन शाहरुख के लिए नहीं हैं, पर उन्हें कौन समझाए? इस यारी-दोस्ती के चक्कर में बहुत से पहले भी बर्बाद हो चुके हैं।
लेकिन बात ये भी है कि जब तक सब के सब पैसा कमा रहे हैं, अभिनेता की संतुष्टि कहाँ मायने रखती है?
हिन्दुस्तान के लोग भी अजीब हैं। यहाँ 'नमस्ते लंदन, 'पार्टनर','भूलभुलैया' और 'ओम शांति ओम' हिट हो जाती हैं और 'ओमकारा','ब्लू अम्ब्रेला' और 'नो स्मोकिंग' फ्लॉप हो जाती हैं।
एक और अफ़सोस, अपने प्यारे देश की जनता के लिए!



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4 पाठकों का कहना है :

गिरिराज जोशी said...

बहुत सही.... एक नज़र "अनवर" पर भी डालियेगा।

सस्नेह,

- गिरिराज जोशी

विश्व दीपक said...

यहाँ 'नमस्ते लंदन, 'पार्टनर','भूलभुलैया' और 'ओम शांति ओम' हिट हो जाती हैं और 'ओमकारा','ब्लू अम्ब्रेला' और 'नो स्मोकिंग' फ्लॉप हो जाती हैं।

बात सही है..... परंतु अफसोस! इन फिल्मों के चलने और बाकि के न चलने के पीछे भी जनता का हीं हाथ है। हम सारा दोष करण जौहर और फराह खान पर हीं नहीं थोप सकते। उनकी फिल्में चलती हैं, अच्छा बिजनेस करती हैं। इसलिए वे बनाते हैं। अभी ब्रिटेन में सबसे ज्यादा बिजनेस करने वाली और इस मामले में हालीवुड को भी पीछे छोड़ने वाली फिल्म "ओम शांति ओम" हीं है। जनता यही देखना चाहती है। दोस्त, मुझे भी बुरा लगता है जानकर कि "नो स्मोकिंग " और "ब्लू अम्ब्रेला" नहीं चली, अच्छी और इनसे तो लाख गुणा अच्छी थी। लेकिन तुम अपने आस-पास में हीं पता करो, कितनों ने देखी है।

सब जनता है... जनता जनार्धन....और निर्देशकों के लिए पैसा और जनता हीं सब कुछ है। इसलिए वो बनाते हैं। ऎसी एक भी फिल्म पिट जाए तो नहीं बनेगी...लेकिन "अगर पिटे तो"....

-विश्व दीपक 'तन्हा'

गौरव सोलंकी said...

जल्द ही अनवर देखूँगा गिरिराज जी।
तन्हा भाई, सही कह रहे हो। जब जनता यही सब पसन्द करती है तो क्या किया जा सकता है?
सोचते हैं कि कुछ किया जा सकता है या नहीं...

Bhavya said...

Acha ja rahe hai bandhu...