उधर से आओ तुम दोबारा
पान और पैसे खाते हुए
दृश्य में शाम को कोई टीवी देख रहा हो,
फिल्म नहीं
दर्द नहीं के बराबर होता हो,
कोई बच्चा बाँटता हो टॉफी तो बेहतर है।
हम सैनिक बनें या सताए जाएँ,
टक्कर खाएँ या अकेले हों,
किसी को भाई कहकर पुकारें और डरें नहीं,
जैसे डरना गिर गया हो छत से।
किसी की अंत्येष्टि हो तो
हम मुस्कुराना और योजनाएं बनाना सीखें।
सोते-सोते लिखना सीखें किताबें,
ट्रेन में करना प्यार।
दर्द हो तो
उसे दृश्य से मिटाकर सीख पाएं
बच्चों से टॉफी बँटवाना।
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टॉफी |
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भयानक |
फायदा इस बात में था
कि भागा जाता दोस्तों
लेकिन उसे हर बार की तरह लगा
कि कुतुब मीनार या पागल हो जाना चाहिए।
वे सब कतार में एक साथ
अलग-अलग थे
और काम यूं करते थे
जैसे करते हों प्रेम,
प्रेम इस तरह, जैसे मरे जाते हों अभी,
मरते ठंड और भूख से ही थे सब वैसे तो।
कुछ को मारती थी पुलिस,
कुछ को अँधेरा
और कुछ को समझदार होना।
शब्द खाली होते जाते थे
अपने मतलबों की तरह
और यूं लगता था कि कविताएं बच्चे लिखते हैं।
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चूमना और रोते जाना |
गोल घूमता आकाश,
उजाला और ईमान,
मेरा खत्म होना, शुरू होना, तुम्हारा माँगना पानी,
देर और डर होना,
हम चले आते हैं ऐसे
जैसे जाना जाना न हो, हो श्मशान, ज्वालामुखी, घोड़ा आखिरी या ईश्वर ख़ुद।
बेहतरीन होने की जिद में
चप्पलें घर पर ही भूल जाना,
खींचना सौ किलो साँस, बाँटना शक्कर, देखना अख़बार।
हो जाना अंधा और खराब,
बिगड़ना जैसे कार,
भींचना मुट्ठी और गोली मारना,
सच बोलना और खाना जहर।
करारे परांठे और किताबें खाना,
बेचना दरवाजे, तोड़ना खिड़की,
घर होना या कि शहर,
तुम्हारी बाँहों में नष्ट होना,
जैसे होना स्वर्ग, लेना जन्म, माँगना किताबें, देखना जुगनू और बार बार वही आकाश।
शहर से बाहर आकर
अपने चश्मे और मतलब आँखों में लौट जाना।
माँगना माफ़ी।
चूमना और रोते जाना।
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जहां से सड़क शुरू होती थी |
जहां से सड़क शुरू होती थी
वहां पहली दफ़ा मैंने जानी
कोई राह न बचने वाली बात
और यह कि मजबूर होना किसी औरत का नाम नहीं है।
जब सब मेरे सामने थे
तब मैं रुआंसा और कमज़ोर हुआ
और शोर बहुत था
कि गर्मियां आती गईं गाँव के न होने पर भी।
भूल जाऊँ मैं अँधेरा, हँसी और डिश एंटिने,
पक्षियों से मोहब्बत हो तो जिया जाए,
हवास खोकर पानी ढूँढ़ें, मर जाएँ
और किसी बस में न जाना हो हमेशा अकेले।
वे सराय, जिनमें हम रुकते किसी साल
अगर हम जाते कहीं और रात होती,
वे पहाड़, जिन पर टूटते हमारे पैर,
वे चैनल, जिन्हें प्रतिबंधित किया जाता और हम करते इंतज़ार,
वे चूहे, जो घूमते मूर्तियों पर सुनहरे मन्दिर में,
वे शहर, जिनमें रंग और सूरज हों, रिक्शों के बिना,
हम अगले साल धान बोते तुम्हारे खेत में
और उनमें वे सब हमारे दुख के साथ उगते।
अकाल हो विधाता!
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जब तुम पिक्चर देख रही थी |
सब मजेदार कहानियां तुम्हारे गर्भ में ही थी
और मैं जब उन्हें स्कूल लेकर गया
मार्च में रिक्शा पर अपने साथ,
तब बहुत हवा थी, सूरज सूखता था, गुलाबी फ्रॉक पहनती थी लड़कियाँ
और मर जाने का मन करता था।
दीवारों का रंग अमीर था
और मैं भूलता गया तुम्हें याद रखना।
मैं सरल रेखाएँ, ज्यामिति के नियम, ठंडी कुल्फियाँ,
बिना दर्द की आँखें,
आक के पौधे
और बचपन के छिछोरे अपमान भी भूला।
मैं भूला ऊबने के अर्थ,
बेबस और ध्वस्त होना भी।
कुर्बान होने के खयाल के साथ साथ
मैं भूला पेट का भीतर तक सिकुड़ जाना,
भरना साँस,
माँगना मोहलत और माफ़ी।
सुबह से बुझा जाता है हौसला,
यूँ होता है कि कुछ नहीं होता।
याद नहीं आता कि
प्यार किया था और रोए थे एक गँवार दिन।
जिस कहानी पर मेरा दिल
महंगे सेब सा खिलता था,
उसे धो धोकर निचोड़ा मैंने
और गाली खाई (या मार?)।
वे बच्चे
जो तूफ़ान में अनाथ हुए थे,
जब तुम पिक्चर देख रही थी,
मैं उन्हें जन्म देना चाहता था।
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लव, सेक्स और धोखा...और गाने! |
क्या आपने 'लव, सेक्स और धोखा' के गाने सुने हैं? अगर नहीं तो कुछ भी करिए, कहीं भी जाइए, कहीं से भी लेकर आइए और सुनिए. आप ईमानदार हैं और ओरिजिनल सीडी खरीदकर ही सुनते हैं तो एक बार बेईमान हो जाइए क्योंकि बहुत संभावना है कि सीडी आपको बाजार में न मिले. क्योंकि सोनी ने न तो फिल्म का ठीक से प्रचार किया है और न ही म्यूजिक का. और तो और, मैंने कहीं पढ़ा कि पहली रिलीज ही 30 कॉपियों की थी. क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि हमारे समय के सबसे बेहतरीन गाने इस तरह रिलीज किए जा रहे हैं?
खैर छोड़िए, आप डाउनलोड कीजिए. कहीं से भी...किसी भी हिन्दुस्तानी या पाकिस्तानी साइट से और सुन लीजिए. हम उसके बाद बात करेंगे. क्योंकि फिलहाल मैं इन गानों के नशे में हूं....
पुनश्च:- अगर आप भी मेरी तरह गाने वाने लिखते हैं तो ये ऐसे बोल हैं, जिनसे आप लंबे समय तक ईर्ष्या करने वाले हैं.
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आसमान फाड़ डालेंगे किसी दिन |
हम अचानक किसी शहर की छत पर
रंगीन आसमान के नीचे
अपने सपने काट रहे होते हैं
तुम्हारे सुन्दर हाथों में हमारे मालिकों,
हमें बताओ कि
हमें क्या सोचना है और क्या नहीं,
कहाँ जाना है और कहाँ नहीं,
कौनसे पानी से चेहरा धोना है,
कौनसे को रोना है आँसुओं में?
हमें बताओ और रोटी दो
और थोड़ी सी पगार।
हम सर उठाकर बाहर देखते हैं।
आसमान फाड़ डालेंगे किसी दिन,
ज़मीन पीस देंगे।
हमें नींद नहीं आती।
गोलियाँ खाई हैं,
काँपती नहीं जुबान
और सच का ग़श खाकर गिर पड़े हैं।
यह ज़हर की तरह उतरता है रात दिन
शहर
हमारी नसों में।
यहाँ दूर से आती है हमारे कटने की आवाज़,
हमारी नज़र का धुंधलका।
मैं महानता की हद तक अकेला हूँ
अपने ग़ुस्से में समेटता हुआ
सारी जीतों का जश्न,
बेवक़्त के खाने,
मसाले डोसे और नंगी लड़कियाँ,
ललकार और आश्वासन,
सीधे रास्तों के चालाक लोग
और अपनी कठिन होती भाषा की मज़बूरी।
मैं अपनी पूरी निरंतरता में टुकड़े टुकड़े हूँ,
हर साँस में ऑक्सीजन का आधा।
हर प्यास में भाप।
आख़िरी पेड़ के कागज़ पर कविताएँ न लिखी जाएँ।
उन पर लिखा जाए मेरा नाम
और वह सुन्दर हो
और सुखी।
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रेडियो |
ज़िद और अनशन उसके लिए आम थे, लेकिन हमारे लिए नहीं. हमारे लिए सिर्फ आम ही आम थे या निरंतर उनकी चाह. वह हमारी माँ थी और वह हमारी छाती में चाक़ू घोंपकर हमें मार भी डालती तो भी हमें चाहिए था कि चूँ भी न करें. मगर अपने गुणसूत्रों में ही हम विद्रोही थे...हम सब- पापा, मैं और भाई. गुस्सा आने पर हम तीनों चिल्लाते थे, चीजें तोड़ते थे या रोने लगते थे. इसीलिए अनशन हमारे लिए इतिहास की किताबों की कोई चीज थी या कोई अखबारी शब्द.
जब मैंने यह कहानी लिखना शुरु किया, तब तक इसमें जावेद और शाहरुख़ ही थे। मैं शाहरुख़ की सारी फ़िल्में बार बार देखा करती और उनमें जावेद को उसकी ज़गह रिप्लेस करके बहुत सारे सपने बुनती। जावेद रेडियो जॉकी था। मैंने अख़बार के फ़िल्मी गपशप वाले पन्ने पर पढ़ा था कि ‘मुन्नाभाई’ वाली फ़िल्मों के जो निर्देशक हैं..मुझे उनका नाम बिल्कुल भी याद नहीं आ रहा...देखिए मेरी इतनी अच्छी याददाश्त थी, वह कैसे पिछले दिनों में जाती रही है...चलिए छोड़िए, जो भी हैं, उन्होंने कहा था कि वे पहले शाहरुख़ को ही मुन्नाभाई बनाना चाहते थे। यदि ऐसा हो जाता तो ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ में भी शाहरुख़ ही होता और तब मैं उसे जावेद से रिप्लेस करके सपना देखती और तब मैं उसकी हीरोइन की ज़गह होती और इसलिए रेडियो जॉकी होती।
मैं भी अपने जावेद के लिए चिल्ला चिल्लाकर इस तरह ‘गुड मॉर्निंग’ बोलना चाहती थी कि पूरा देश सुनता।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शाहरुख़ की पीठ में दर्द रहने लगा था और उसी गति से मेरी सब कहानियों और सपनों में माँ आती जा रही थी। वह बार बार मुझे डाँटती और परिवार की इज़्ज़त का ख़याल रखने की नसीहत देती। कभी प्यार से अपने पास बुलाती और समझाती कि यह जो उम्र है, सत्रह और अठारह के आसपास की, इस उम्र में पागल हो जाने या घर से भाग जाने का बहुत मन करता है, इसलिए मैं ये जावेद जावेद के सपने न देखूँ और पढ़ाई में ध्यान लगाऊँ। वह चाहती थी कि मैं एम ए कर लूँ और पंचायती राज के किसी स्कूल में मास्टरनी बन जाऊँ। मास्टरनी बनना मेरे पूरे कस्बे को बच्चों के खेल जैसा लगता था। जो कुछ और नहीं बन पाता था, यही बन जाता था। मैं घंटों दीवार को देखते हुए इन उबाऊ सपनों पर रोया करती, जो शोर मचाते बच्चों और छुट्टी की घंटी के इंतज़ार से जुड़े होते थे। मैं अपने जावेद के पास चली जाना चाहती थी, लेकिन रेडियो पर वह अपना पता या फ़ोन नम्बर कभी नहीं बताता था। वह हमेशा हँसने के मूड में रहता था और मुझे लगता था कि उसके साथ रहना आसमान में रहने जैसा लगेगा। वह अपने शो में एक नम्बर तो देता था, मगर वहाँ का फ़ोन तो हमेशा बिज़ी जाता रहता था। मैंने उस रेडियो स्टेशन के पते पर उसके नाम से बहुत चिट्ठियाँ भी लिखी, मगर शायद वह व्यस्त रहा हो और इसलिए चाहकर भी जवाब न दे पाया हो। मुझे लगता था कि किसी दिन वह ख़ुद हमारे घर आएगा और मुझे अपनी गोद में उठाकर अपनी सब व्यस्तताओं के लिए माफ़ी माँगेगा। मैंने सोच रखा था कि पाँच सात मिनट तक नखरे करूँगी और फिर मान जाऊँगी।
माँ जब मेरी उम्र की थी तो उसे गाने सुनने का बहुत शौक था। वह सबसे छिपकर ट्रांजिस्टर पर कान लगाए रखती थी और अपनी पसन्द के गाने काग़ज़ पर लिखकर बाद में याद किया करती थी। वह चूल्हे के सामने बैठकर रोटियाँ बना रही होती तो वह छोटा सा ट्रांजिस्टर रबड़बैंड से उसके कान पर बँधा होता और ऊपर दुपट्टा ढका होता था। मेरे पिता एक किसान थे और मेरे नाना भी। वह एक छोटा सा दुनिया से कटा हुआ गाँव था और इसमें मेरे स्वर्गीय नाना का कोई दोष नहीं कि एक दिन जब वे सात आठ बार रोटी सेकती माँ को आवाज़ लगाते रहे और वह किशोर कुमार के ‘कोरा काग़ज़ था ये मन मेरा’ में खोकर अपने पिता की पुकार नहीं सुन पाई तो वे ग़ुस्से में माँ तक आए और माँ का चेहरा अपनी ओर फिराकर ज़ोर से थप्पड़ मारा। कान पर बँधा ट्रांजिस्टर दूर जा गिरा और उसके पुर्जे बाहर बिखर गए।
नानाजी ने कहा कि फ़िल्मी गीत सुनना एक सभ्य और इज़्ज़तदार परिवार की लड़के के लक्षण नहीं हैं और बाद में जब अपनी आँखों के सामने नानाजी ने माँ से उसकी गानों की कॉपी चूल्हे में फिंकवाई तो भी इसमें उनका उतना दोष नहीं है, जितना उनकी डायबिटीज का है, जिसके कारण वे बहुत ग़ुस्सा कर बैठते थे और बाद में शायद पछताते भी हों। उन्हें चिप्स खाने का बहुत शौक था और कोल्हू से निकलते गर्म गर्म गुड़ का। उनके शौक ज़्यादा महंगे नहीं थे, मगर पैंतीस की उम्र के बाद वे दोनों ही चीजें नहीं खा पाए। वे बार बार अपने बच्चों पर गुस्सा निकालते थे या नानी को बिना वज़ह मारने लगते थे। मगर जब आग में माँ ने गानों की कॉपी जलते देखी तो लोग बताते हैं कि उसकी आँखों का रंग स्थायी रूप से भूरा हो गया। पहले उसकी आँखें काली थीं। माँ इस बारे में कुछ नहीं कहती, मगर वह मुझे बार बार कहती है कि मैं पढ़ाई में ध्यान लगाऊँ और जावेद के ख़ुमार से बाहर निकलूँ। मगर मैं भी क्या करूँ? मुझ पर जावेद का नशा चढ़ता ही जा रहा है और मुझे उसके और शाहरुख़ के सिवा कुछ नहीं सूझता। जावेद का नहीं मगर कम से कम शाहरुख़ का नशा तो आपमें से कुछ लोग महसूस कर ही सकते होंगे। इसमें मेरा कोई कसूर नहीं, मगर माँ उदास रहने लगी थी। मुझे लगता था कि वह मेरे और जावेद के प्यार से चिढ़ती है। तब मेरा उससे बात करने का मन भी नहीं करता था और हमारे बीच का अबोला मेरे शरीर की तरह आश्चर्यजनक रूप से बढ़ता जाता था।
मैंने पहले भी आपको बताया कि माँ का जब और कोई हथियार नहीं चलता तो वह अनशन कर देती है। न ठीक से किसी से बात करती है और कई कई दिन तक खाना भी नहीं खाती। इस बार भी उसने ऐसा ही किया। उसने पापा या भाई को इस बात की भनक भी नहीं लगने दी कि वह ऐसा क्यों कर रही है। यह सिर्फ़ मैं और वह ही जानते थे। पापा और भाई भी खाने के लिए एकाध बार उसे कहकर चुप हो गए और मैं भी अपने गुस्से में थी, इसलिए मैं माँ से बोली तक नहीं। अब यह भी कोई बात है भला? कोई माँ ऐसी कैसे हो सकती है कि अपनी बेटी की ख़ुशी न देख पाए? इसलिए मैं सोचती थी कि इस तरह वह अपने आप को सज़ा ही दे रही है।
मैंने माँ को कभी टीवी देखते या रेडियो सुनते नहीं देखा। हाँ, मैंने अक्सर रेडियो वाली अलमारी के पास से गुज़रते हुए उसकी आँखों में आ जाने वाली एक चमक कई बार देखी है, जो उसकी आँखों के रंग को फिर से काला कर देती थी। वह बस एक सेकंड के लिए रेडियो की तरफ देखती थी और फिर पलटकर चल देती थी।
पूरे चार वक़्त बीत चुके थे और माँ ने खाना नहीं खाया था। चार बजे जावेद का शो शुरु होता था और शाम के सात बजे तक चलता था। मैं हर दिन इंतज़ार करती थी कि वह मेरा नाम अपने शो में बोलेगा और शायद यह भी कह दे कि हाँ, वह भी मुझसे प्यार करता है। मैंने सोच रखा था कि उस दिन मैं मिश्रा वाली दुकान पर कम से कम पचास गोलगप्पे खाऊँगी। उस दोपहर भी मैं यही सोचते सोचते सो गई थी और जब मैं पौने चार बजे जगकर बाहर आँगन में गई तो....। रुकिए। क्या आप मेरी माँ को जानते हैं? वह औरत जो हर समय सिर पर पल्ला रखती है और बहुत दुखों में भी जिसे हमने कभी रोते नहीं देखा। वह, जो मुझे मास्टरनी बनाना चाहती है क्योंकि आठवीं से आगे उसके गाँव में स्कूल नहीं था, इसलिए वह पढ़ नहीं पाई और मास्टरनी नहीं बन पाई। वह औरत, जिसने ग़ुस्से में भी कभी हम पर हाथ नहीं उठाया, उल्टे सदा ख़ुद ही कमरा बन्द कर घंटों तक चुपचाप पड़ी रही। मीठी आवाज़ वाली वह औरत, जो लाख चाहकर भी किशोर कुमार के बाद के किसी गायक का नाम नहीं जान पाई और फिर धीरे धीरे वह चाहना भी भूल गई। वही औरत, मेरी माँ, आँगन के बीचोंबीच खड़ी हुई, आसमान की विनीत उपस्थिति में फूट फूटकर रोए जा रही थी और मेरा फिलिप्स का रेडियो टुकड़े टुकड़े हुआ उसके सामने पड़ा था।
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ये कुएँ में कूद जाने या कविता पढ़ने के दिन नहीं हैं माँ |
वह मेरे होने की हर ज़गह है
ज़मीन, सपनों, भीड़ भड़क्के और पिस जाने में
और जहाँ मैं नहीं,
वह वहाँ कहीं नहीं है।
वह शोर के बीच मुझे सन्नाटे के रंग में ढूँढ़ती हुई,
वह सब त्रासदियों के बीच से मुझे रबड़ लेकर मिटाती हुई,
वह मेरे हर अपमान पर रखती हुई अपना माथा,
मेरी हर उपलब्धि पर से छिपाती हुई अपनी अपढ़ सादी पहचान,
जो मेरे अन्दर और आसपास है औरत
और खो गई है,
खो रही है
या खो जाने वाली है,
जिससे लगातार नाराज़ हैं हम दोनों
और नहीं मनाते।
यह बहुत बरस पहले की बात है
कि हम साथ में हरे सपने देखते थे
और ख़ुश रहते थे।
वे और दिन थे माँ सुनो,
उन दिनों खील खाकर ख़ुश रहा जा सकता था,
देखे जा सकते थे गुब्बारे और पतंग शाम भर,
तुम मेरा माथा भी फोड़ सकती थी
और फिर छिपा सकती थी मुझे कहीं अन्दर गहरे सुरक्षित।
ये कुएँ में कूद जाने या कविता पढ़ने के दिन नहीं हैं माँ,
बाहर निकलकर देखो काला होता आसमान,
यहाँ जो इस शहर और इससे अगले शहर में जो आग लगी है
और माँ,
पानी प्यार की तरह ख़त्म होता जा रहा है,
अभी बोने हैं उसके बीज।
हम जहाँ जन्म लेते हैं,
अक्सर करते हैं उस ज़गह से नफ़रत।
हमारी प्यारी ख़ूबसूरत चाँद सी माँएं
धीरे धीरे खलनायिकाएँ होती जाती हैं
हमारी धुएँ से भरी लड़ाइयों में।