उसके भागने की रात


मैं घर लौटा तो ऐसा था जैसे किसी आदमी को खा जाऊँगा। चाची दरवाज़े पर खड़ी थी और कभी भी गिर सकती थी। पिताजी अन्दर कमरे में बन्द थे और मेरे पहुँचते ही चाची कहने लगी थी कि कहीं वे पंखे से लटककर फाँसी न लगा लें। जैसे वह उन्हें जानती ही न हो कि वे क्या कर सकते हैं और क्या नहीं, और जैसे मेरा फ़र्ज़ है कि अभी दरवाज़े में टक्कर मारकर उसे गिरा दूं और उन्हें अपने आत्मसम्मान के साथ चैन से रोने भी न दूं।

By Sally Mann
मैं पसीने से भीगा हुआ था। चाची टेबल फ़ैन इसलिए नहीं चलाना चाहती थी कि फिर हम आपस में तेज़ आवाज़ में बोलते और आवाज़ बाहर जाती। मुझे बहुत तेज़ गुस्सा आ रहा था और निशा अगर ग़लती से लौट आती तो मैं उसे काट डालता। इसलिए साढ़े तीन घंटे तक उसे ढूंढ़कर लौटने के बावज़ूद अन्दर कहीं मैं चाहता था कि वह न मिले, नहीं आए।

- सुबह तक वो नहीं आई तो मैं घर का दरवाज़ा अन्दर से बन्द कर लूंगी और मैं और तेरे पापा जी कभी बाहर नहीं निकलेंगे।

यह एक तरह का नैतिक दबाव था, मुझ पर, कि मुझे उसे वापस लाना चाहिए। वह न मिले तो किसी लड़की को मारकर चाकू से उसके नक्श निशा जैसे बनाने चाहिए और उसमें रुई भर के सुबह से पहले देहरी पर बिठा देना चाहिए।

दरवाज़ा खुला था। चाची मुझे लेकर आंगन में बिछी चारपाई पर आकर बैठ गई थी। मैं उन रेलगाड़ियों का हिसाब लगा रहा था जो पिछले चार घंटे में हमारे शहर से छूटी थीं। मैं अभी स्टेशन से सब पूछकर आया था कि कौनसी गाड़ी इस वक्त कहाँ पहुँची होगी, लेकिन अब सब गड्ड मड्ड हो गया था। यह भी क्या ठीक लगता कि मैं डायरी और पेन लेकर स्टेशन मास्टर के पास जाता और सब लिखकर लाता?

मुझे प्यास लगी थी। चाची ने फिर कहा कि पिताजी पंखे से लटक जाएंगे।

- मुझे लगता है कि तुम चाहती भी यही हो। कि हम सब भाग जाएँ या लटक जाएँ या जल जाएँ।
- हाय राम!
वह छाती पीटने लगी और बोली कि उसे चक्कर आ रहे हैं। मैंने चक्कर आने दिए। वह नहीं गिरी, बल्कि लेट गई।

- पानी दोगे?
- लखन दिखा इन दिनों कहीं आसपास?
- ना..
- फ़ोन पर कितने बजे बात कर रही थी वो?
- पाँच बजे के बाद। चाय पीते हुए।
- ट्यूशन गई तो कुछ लेकर गई थी? कपड़े? कोई बैग वैग?
- मैं पूजा कर रही थी। बोल कर गई बस कि मम्मी जा रही हूं।

यह बात इसलिए झूठ थी कि हम दोनों ही उसे चाची बोलते थे और मैंने पिछले नौ साल में उसे कभी पूजा करते नहीं देखा था।

- ब्लड प्रेशर हाई हो रहा है मेरा।
- तो अन्दर जाओ दूसरे कमरे में। पंखा उसमें भी है। स्टूल भी है।

पिताजी अन्दर दीवार पर मुक्के मारने लगे थे शायद। कुछ गिरा भी। मैं भागकर खिड़की पर गया। खिड़की के शीशे से उनकी आकृति दिख रही थी। वे शायद घुटनों के बल फ़र्श पर बैठे थे, दीवार की ओर चेहरा किए।

- वो आ जाएगी पापा जी। सात दिन से ज़्यादा कोई लड़की रुकी है बाहर? जितने भी केस सुने हों आपने।
 
वे कुछ नहीं बोले। उनकी आकृति स्थिर रही। मैंने कुछ और ऐसी बातें कही, जिनमें या तो मेरा यक़ीन नहीं था या मैं चाहता नहीं था कि वैसा कभी हो। वे नहीं हिले और मुझे ज़ोरों का गुस्सा आया। पागलों की तरह सड़कों पर मैं घूमता रहा था, लोगों के सवालों का हँसकर जवाब देता और ऐसी बातों में रुचि दिखाता कि बरसात होगी या नहीं या किरसन के लड़कों ने आज किसे मारा, और वे दोनों यहां बैठकर बच्चों की तरह रो रहे थे। वहाँ एक बाल्टी रखी थी, जिसे मैंने ठोकर मारकर हवा में उछाल दिया। वह आँगन में चाची की चारपाई के पास जाकर गिरी। वह चौंककर उठकर बैठ गई। मैं यह देखने के लिए नहीं रुका कि अन्दर पिताजी की आकृति हिली है या नहीं।

मैं फिर सड़क पर आ गया था। बीच-बीच में मुझे लग रहा था कि चाची ने ही उसे भगाया है। लेकिन कुछ पूछूंगा तो दहाड़ें मारकर रोने लगेगी। लखन नाम का एक लड़का निशा की क्लास में था और एक बार मैंने उसे उसके पीछे आते भी देखा था। पकड़कर बहुत मारा भी था स्टेशन के पीछे उसे, पर क्या फ़ायदा अब?

रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे। कोने वाले नल से पानी पीकर मैं घूमकर फिर से मेन रोड पर आ गया था, स्पेयर पार्ट्स वाले मार्केट से थोड़ा आगे, लेकिन मेरे अलावा मेरी नज़र में वहाँ कोई आदमी नहीं था। कुछ कुत्ते थे। मैं नहीं जानता था कि मैं किधर जा रहा हूँ। लेकिन एक हाथ मैंने जेब के चाकू पर कस रखा था। उन दोनों में से कोई भी मुझे दिख जाता, कोई भी क्या, निशा की छाया भी दिखती तो मैं उसे टुकड़े टुकड़े कर देता।

और तभी - साढ़े ग्यारह बजे होंगे, यह शायद मैंने पहले भी बताया है मेरा दिल हुआ कि मैं कभी घर न लौटूं। उन दोनों को वहाँ हमेशा रोने दूं और ऐसा सोचकर मैं अन्दर कहीं हँसा। और फिर हवा का एक तेज झोंका आया, जिसके बाद की यह बात है कि लखन सामने से आ रहा था, सीटी बजाता हुआ।

जब वह मेरे क़रीब पहुंचा, तब भी वह मेरे होने से बेख़बर था। वह जब मेरी बगल से गुज़र रहा था, तब मैंने उसका कंधा पकड़ा, उस सख़्ती से, जिससे वह पहचान जाता कि मैं कौन हूँ। उसने हड़बड़ाकर मेरी तरफ़ देखा। मैंने कुहनी का एक भरपूर वार उसके गाल पर किया और वह घूमता हुआ नीचे गिर पड़ा।

- निशा कहाँ है?

वह मुझे ऐसे देख रहा था, जैसे न मुझे जानता हो, न निशा को। बहुत देखे हैं मैंने ऐसे नाटकबाज। शायद उन दोनों ने प्लानिंग ही इस तरह की होगी कि निशा कहीं छिपा दी जाएगी और वह सड़क पर ऐसे घूमेगा, जैसे उस कुछ मालूम ही न हो। मुझे इस दो टके के नाटक पर निशा के भागने से ज़्यादा गुस्सा आया और जैसे उसका चेहरा चेहरा नहीं, बाल्टी हो, मैंने एक ज़ोर की ठोकर उसके चेहरे पर मारी। वह ज़ोर से कराहा और अपने हाथों से अपना सिर और चेहरा छिपाता हुआ
क्या है, क्यों है जैसे तैयार सवाल पूछने लगा।

साला ऐसे सीटी बजाता हुआ आ रहा था! पता नहीं, क्या किया होगा इन दोनों ने। मैं उसके चेहरे को नोच डालना चाहता था। जहां जहां निशा ने छुआ होगा...ओफ्फोह! मेरे दिमाग में बहुत बुरे कुछ चित्र बने। और मैंने झुककर उसकी गर्दन पकड़कर उसे उठाया और फिर ज़मीन में दे मारा। वह चीखा। कुछ कुत्ते भौंकते हुए हमारे आस-पास आ गए थे और तमाशे की तरह यह सब देख रहे थे। उसके मुँह से खून बह रहा था। अब वह अपने सवाल छोड़कर गिड़गिड़ाने लगा। रोशनी अब भी बहुत कम थी लेकिन शायद अब वह मुझे पहचान गया था।

- कहाँ है निशा?
- मुझे नहीं..नहीं पता भाई..साहब! उस दिन के बाद मैं बिल्कुल भूल गया..

मैंने एक ज़ोर की ठोकर उसके पेट पर मारी। कुत्ते ताली बजाने की तरह भौंकने लगे।

- साले बता दे, नहीं तो दफ़न हो जाएगा आज।
- नहीं पता...सर..बिल्कुल...सच कह रहा हूं मम्मी कसम।

वह निशा की उम्र का ही होगा। शायद अठारहवें साल में। दुबला सा और लड़कियों की तरह गोरा। एक छोटा सा क्षण था, जब मुझे लगा कि यह बच्चा है और सचमुच कुछ नहीं जानता और इसे इसके घर जाने देना चाहिए, जहाँ इसकी माँ दूध में हल्दी डालकर इसे पिलाएगी। पर इसी बीच मुझे मेरी माँ याद आई जो बारह साल पहले बिना कोई वज़ह बताए गायब हो गई थी और फिर निशा!

और तब कुछ ऐसी हवा चली और उसके साथ कोई कुत्ता कुछ इस तरह भौंका कि यक़ीन मानिए, तब कुछ और नहीं हो सकता था। वह भौंक रहा कुत्ता जिस पत्थर के पास खड़ा था, मैंने उसे उठाया और लखन के सिर पर दे मारा।

वह शांत हो गया। बिना किसी चेतावनी के। मैं वहीं खड़ा उसे देखता रहा। कुछ पल बाद मैंने अपने कपड़े ठीक किए, इधर-उधर देखा। आसपास अब भी कोई नहीं था। जब उसके सिर से खून बहने लगा तो कुत्ते उसके और पास आने लगे। मैंने जेब से अपना मोबाइल निकाला और निशा को फ़ोन मिलाया। अब भी स्विच्ड ऑफ़ आ रहा था।

एक कुत्ता लखन के मुँह के बिल्कुल पास आ गया था। मैंने उसे खदेड़ना चाहा पर खदेड़ा नहीं। मुझे बहुत तेज भूख लगी और मैं अपनी जेबें टटोलने लगा, जिनमें चने के कुछ दाने तो हमेशा रहते ही थे।

यह सोमवार की बात है।