हमारे हिस्से नहीं आए खेतों की याद में

कंचनजंघा की छत पर
मेरे उबले हुए होठों की भाप से
सेक रहे थे हम
तुम्हारी हथेलियों की गुदगुदी
और हमारे हिस्से नहीं आए गाँव वाले खेत को जाने वाली पगडंडी
आसमान तक खड़ी हो गई थी
उस पर तुम गेहूं थी

हाय, उन खेतों में माँ दाल थी, पिता सूरज
और मैं अपने भाइयों के साथ
ट्यूबवैल बनने की पढ़ाई कर रहा था

तुम सुनहरे रंग की थी
क्योंकि तुम्हारे बनाए जा सकते थे जेवर,
तुम्हें पहना जा सकता था
तुम्हें रखा जा सकता था
तुम्हारे पति की शादी के बाद के
दिखावे के सामान में
सबसे आगे
काजू, बादाम, किशमिश,
तुम प्लेट में सजे हुए
सूखे मेवों के रंग की भी थी
थोड़ी बिग बाज़ार के रंग की भी

हम तुम्हें ब्याहना नहीं
रोज नाश्ते में खाना चाहते थे
क्योंकि जमीन के उबाऊ मुकदमों के बीच
हमारी आँतें हमें खाने लगी थीं

मेरा सारा प्यार
जिसमें कुछ लड़कों की पराजय
कुछ लड़कियों की ईर्ष्या
कुछ विदेशी फिल्मों वाले चुम्बन और निराश एसएमएस थे
तुम्हारी रोटियों के लिए था जानेमन


(
यह एक पुरानी कविता का नया जन्म है)



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7 पाठकों का कहना है :

ASHOK BAJAJ said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति .

श्री दुर्गाष्टमी की बधाई !!!

राजेश चड्ढ़ा said...

अति-उत्तम

अनिल कान्त said...

गौरव, तुम बात कहने के लिए, जिस तरह से प्रतीक चिन्हों का इस्तेमाल करते हो, वह काबिले तारीफ़ है ।

Brajesh Kumar Pandey said...

एक उम्दा कविता जिसने न सिर्फ व्यापक फलक को समेटा है बल्कि समय के साथ छीजते एहसासों को भी उसी शिद्दत से बटोरा है.एक लैंडस्केप .

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रभावी अभिव्यक्ति।

संध्या आर्य said...

एक अरमान जो जज़्ब हो
सपना बन
दिन को प्रकाशमान कर रही थी
अधूरी हथेलियो पर रेंगते
कीडे से वक्त मे
भूख का तीव्र हो जाना
एक दमित इच्छा

मानविय होने के सरोकार से जुडी थी
सब आदते
भूख,प्यास,नींद और अन्य चीजे
जो एक जद्दोजहद से बुझती थी
सबकी अलग अलग होती
तप्ते रिश्तो मे

बस एक तू का ख्वाब हो जाने
से भौतिकता मे मादकता
छलक आती थी
और तेरे भूत भविष्य
वर्तमान सब के सब
आकर्षक
सौंदर्य प्रसाधनो की तरह

निराश और उदास आदतो से
खा जाना हर एक तारिख
जो मुजरिम बना देती थी
भूखो को
जिसे समूह ने पैदा की थी
तारिखे निर्दोष थी
अपने दिन और रात मे

आंतरिक भूख की संतुष्टि से
ईर्ष्या का लोटपोट होना
जो दिखने और ना दिखने के बीच के एहसास मात्र
जैसा कुछ था
जो महज एकांगी हो
जीवन से बंधी मजबूरियो मे
एक सामान मात्र !

Anonymous said...

बहुत ही ख़ूबसूरत रचना...
दिल में उतर गयी आपकी यह रचना...
आपको दशहरा की ढेर सारी बधाई....
बहुत खूब...मेरे ब्लॉग में इस बार...ऐसा क्यूँ मेरे मन में आता है....