वे दिन थे

वे दिन थे
जब आसमान था, चाँद था, फूल थे
और सब थे सुन्दर
और दुख के घड़े भरे गिरे पड़े थे हमारे आँगनों में
हम आँख उठाकर देखते थे
तो बादल चुभते थे कृपाणों से
और 'कुछ भी नहीं था' के खालीपन में हम
लुढ़कते चीखते हुए आमने सामने के अँधेरों से टकराकर
फोड़ते थे सिर
और प्रतीक्षाएँ करते थे।
सोने से पहले के लम्बे सपनों में
बड़बड़ाते थे
झख मारते थे
और बदसूरत होते थे हम लगातार।

वे दिन थे
जब अचानक हमें भूख लगती थी
और हम पसीने भरी दुपहरियों में
खोद डालते थे राख के खेत
और अपनी आवाज़ को अपने गले से बाहर निकालकर
देखने-पहचानने के लिए
हमें कुत्तों की तरह भौंकना था,
कमाने थे दो-चार मैले पैसे।

वे दिन थे
जिन्हें और बहुत से छोटे दिनों की तरह
जल्दी बीत जाना चाहिए था
मगर वे नहीं बीते
क्योंकि वे बहेलिये थे
और बाहर जो भीगी रोशनी दिखाई देती थी, जाल थी
और हम अपनी ऐंठ में बेवकूफ़ थे।

सारा शहर जब सर्दी में तापता था लपटें
हमने सोचा था कि क्रांति करेंगे
और एक घटनाहीन चौराहे पर
जब हमें बाँधकर नंगा किया जा रहा था
और लग रहा था,
ऐसा दिखाई भी देता था,
लिखा भी जा रहा था हर तरफ़
कि यह आज़ादी है
और कबूतर उड़ते थे सफेद
गायें मुस्कुराती थी
झंडे उठाते थे सिर
बजते थे प्रभातफेरियों के गीत,
हमने गर्म लोहे को मुट्ठी में दबाकर कहा
मोम
और मेरे हाथ जलते थे बर्फ़ बर्फ़ माँ
शाम का कोई समय था
छ: या साढ़े सात,
मैं बस एक किताब खरीदना और पढ़ लेना चाहता था,
तभी किसी ने पकड़कर मुझे बहुत मारा,
वह जेल नहीं, सड़क थी सुनो
और वे बहुत सारे लोग थे
जिनके नाम मैं बहुत पहले से नहीं जानता था,
और एक किस्म का तमाशा था,
थोड़ा अधिक हिंसक
जिसमें मैंने आखिरी शब्द जो बोला
या जो आखिरी याद है मुझे
वह क्षमा, विद्रोह या प्रार्थना नहीं था।

बहुत दिन थे ऐसे
जिन्हें मैं तुम्हें नहीं बताऊँगा कभी।
हम भूल जाएँगे धीरे धीरे सब कुछ
साथ साथ।



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7 पाठकों का कहना है :

समयचक्र said...

बढ़िया भावपूर्ण रचना . लिखते रहिये.

M VERMA said...

बहुत दिन थे ऐसे
जिन्हें मैं तुम्हें नहीं बताऊँगा कभी।
हम भूल जाएँगे धीरे धीरे सब कुछ
साथ साथ।
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भावपूर्ण और अर्थपरक
बहुत सुन्दर

अनिल कान्त said...

तुम बहुत कुछ कह जाते हो अपनी रचनाओं में मेरे दोस्त ...हो सकता है मैं शत प्रतिशत ना समझ पाता हूँ ..मगर जितना भी समझता हूँ उससे यही कहने का मन करता है ...कमाल का लिखते हो भाई

संगीता पुरी said...

बहुत बढिया रचना .. भावपूर्ण !!

Mithilesh dubey said...

बहुत अच्छा लिखते हो दोस्त, आपकी ये रचना वहुत हि सुन्दर है।

सुशीला पुरी said...

बचपन के दिन भी क्या दिन थे ...........
उड़ते फिरते चिडियों की तरह ............
पलकों पर हंसी होंठो पर रुदन .....

Nikhil said...

वे दिन थे और ये दिन भी हैं...इन पर कब लिखेंगे..