रात में फ़्रिज

एक निर्दयी निर्लज्ज हँसी तैरती है
ज़मीन से आकाश तक,
शहर में शनिवार है
जिसे मुझ पर ज़ाया नहीं किया जा सकता,
आँखों में लाल मिर्च की झोंक सा दर्द
जागता है रात भर पहरेदार बनकर,
फिर भी रात में फ़्रिज़ खोलो तो
सूरज दिखता है।

मरते मरते भी लगेगा
कि जन्मा हूं अभी
और माँ है सुबह सुबह।



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5 पाठकों का कहना है :

ओम आर्य said...

अदभूत.....

neera said...

kya baat hai!

वेद रत्न शुक्ल said...

"मरते मरते भी लगेगा
कि जन्मा हूं अभी
और माँ है सुबह सुबह।"
प्रेम करते हैं आपसे...

अनिल कान्त said...

bahut achchhi lagi gaurav bhai

देवेश वशिष्ठ ' खबरी ' said...

आंखों में तकलीफ है तो लाल मिर्च की झोंक सा दर्द होगा ही... पहले ढंग से इलाज कराओ... फिर जल्दी से वापस लौटो... और हां, आंखों को थोड़ा आराम दो... रात भर जागोगे तो तुम्हारी क्या अच्छे भले आदमी की आंखें भी फ्रिज की जरा सी रोशनी में सूरज देखने जैसा दुखेंगी...
तुम्हारा गौरव जिंदा है... पर जरूरी है कि अभी खुद पर वक्त दो... फिर हो जाएगा लेखन भी, और हिंदी सेवा भी... मेरी बातें कड़वी लग रही होगीं,,, लेकिन अभी इतना जोर से याद कर रहा हूं कि तुम्हें ढेर सारी मीठी गालियां देने का मन कर रहा है... जल्दी ठीक होकर लौटो मेरे दोस्त...