मैं ईश्वर

दुखों के बीहड़ में
मैं अपने साथ तुम्हारी आत्महत्या करना चाहता हूँ
मुझे तुम्हारी आंखों के रंग का दृष्टिभ्रम होता है
नाखूनों से अँधेरा खुरचता हुआ
तुम्हारी देह की सड़क में टटोलता हूँ दसों दिशाएं
और ग्यारहवां घर,
मैं अपनी सघन कुंठाओं से
तुम्हें बनाना और तोड़ देना चाहता हूँ

रात के तीसरे पहर में
मैं ईश्वर हूँ



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9 पाठकों का कहना है :

अविनाश वाचस्पति said...

आप सच बतायें
गौरव जी
वैसे गौरव की नहीं है बात
और न ही है संभव
अपने सिवाय
किसी की भी आत्‍महत्‍या
को देना अंजाम
वो तो हत्‍या हो जाएगी।

अनिल कान्त said...

मैं ईश्वर हूँ ....वाकई ?

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

संध्या आर्य said...

बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति ........ लाजवाब

Pratyaksha said...

बहुत बढ़िया

पारुल "पुखराज" said...

मैं अपने साथ तुम्हारी आत्महत्या करना चाहता हूँ behtareen

Unknown said...

.. solanki.. fan ho gaya main toh is rachna ka !! :D

पंखुडी said...

बहुत अच्छी और गहन अर्थ से परिपूर्ण रचना है !
कुछ दिन पहले ही आपके ब्लॉग देखा , अत्यंत ही अच्छा लगा है !
मेरे ब्लॉग पे भी समय मिलने पे अपनी राय ज़रूर व्यक्त करें ,मुझे सहयोग मिलेगा
अपने ब्लॉग को और परिपूर्ण बनाने का !

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Spritual Attainmentशुभकामनाएं !

neera said...

very good!

Unknown said...

गौरव जी...साहित्य के चालू छंदों और परिभाषाओं से आप मुब्तला होते होते बचे हो...और चालू व्याकरण को बदलने में आपका रोष मुझे आवश्यक मालूम होता है,,और अगर मात्र मीठे धन्यवाद की टिप्पणी से और आगे बढा जाये तो, ये कहा जा सकता है की बिम्ब स्पष्ट होने में सही में आखों को सम ईक्ष बना होगा,तब स्पष्टता की सम्भावना जताई जा सकती है, बहुत अच्छा प्रयोग है.अविनाश जी का कहना है की आत्महत्या किसी और की देना हत्या हो जायेगी,यह सही भी है, मगर श्रीमान वाचस्पति जी आप ही सोचें कि पाठक की अभिव्यक्ति उस मूल अभ्व्यक्ति से और स्पष्ट होनी चाहिये जिसे लेखक ने अभी अभी छोडा है,और जब गालिब जैसा दुष्कर शायर कह सकता है " की अगले ज़माने में कोई मीर भी था" तो ये तो ग़ालिब नहीं गौरव हैं,, कुछ उजाला लेखक करता है कुछ परदे हम उठालें,, सब कुछ गौरव ही कह दें तो फिर क्या,,और जब हम जहाँ न पन्हुंचे रवि वहां पंहुचे कवि जैसे सस्ते और बेमानी जुमले में भी ब्रह्म के समकक्ष जाने का दंभ भर ही देते हैं, तो इस नाज़ुक से प्रयास में क्या किया जाये..कुछ भी कहा जाये, अच्छा लिखा है, मगर बहुत कुछ बाकी रख छोडा है हमारी समझ के लिए यूँ की गौरव ने हमें भी बताया है की इस कविता पढें, समझें, फिर अपनी बुद्धि पर तरस या गर्व खाकर कविता के अनुसार अपनी परिभाषा बताएं..


Nishant kaushik
kaushiknishant2@gmail.com