नन्हे नन्हे ख़्वाब

सुना है
अरब के रेगिस्तानों में
नन्हे बच्चों को
ऊँटों पर बाँधकर
दौड़ाया जाता है।
यहाँ
हमारे यहाँ
सीलन भरी दिल की गलियों में
एक अनाथ
नन्हा सा ख़्वाब
अकेला दौड़ता है
जिसकी माँ
किसी और की माँ हो गई है अब
और किसी और की माँएं
किसी की माँएं नहीं होतीं,
खलनायिकाएं होती हैं।
उस ख़्वाब के पैरों में
छाले हैं
ऐसे, जैसे जन्म से उगे हों
तलवों पर।
उसे प्यास लगती है
तो आँखों की ओस
पी लेता है
और भूख लगती है
तो भी
पेट भर रो लेता है।
वह दौड़ता है अकेला
अपने कदमों में गूँजते हुए
और आहटें सुनकर
सब आ खड़े होते हैं
अपने दरवाजों, फाटकों पर।
सब गूंगे हैं
और बहुत हँसते हैं।
उस सीली गली के मोड़ पर
एक और वैसा ही
उज्जड़ सा अनाथ सपना
उसके साथ हो लेता है,
फिर गूंजते हैं दो रास्ते
चार पाँवों में।
आहटें बढ़ती हैं,
भूख भी
प्यास भी
और सब खलनायिकाएं सो गई हैं
भीतर वाले बन्द कमरों में
कुंडी चढ़ाकर।
निकल आते हैं
बहुत सारे बच्चे
घरों से अनाथ बनकर,
बोते हुए
अपनी एड़ियों में छाले।
ये नन्हे नन्हे ख़्वाब
बहुत रोते हैं
मगर बेशर्म
दौड़ते रहते हैं
चुप, उदास, नम सी गलियों में।
सुनते हैं
अरब में कहीं
एक ख़्वाब कभी
दौड़ते दौड़ते
ख़ुदा बन गया था।



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7 पाठकों का कहना है :

DUSHYANT said...

tumhaaraa man bahut sundar hai

Pramendra Pratap Singh said...

गौरव जी,
आपको हमेशा तो नही पढ़ पाता हूँ, किन्‍तु जब भी पढ़ता हूँ, तो अजीब सा एहसास होता है कि कुछ अच्‍छा पढ़ने को मिला।

आपकी रचनाऍं सच में चातक के लिये स्‍वती नक्षत्र की बूँद की तरह होती है। एक बूँद मुँह में आ जाने के बाद प्‍यास बुझ जाती है। हो सकता है कि आपको मेरी टिप्पणी अतिश्‍योक्ति लगे कि सच्‍चाई यही है कि मुझे आपको पढ़ना अच्‍छा लगता है।

रचना कि सूचना देने के लिये धन्‍यवाद

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

वाह!

Sajeev said...

गौरव इस लाजावाब कविता को आज युग्म पर होना चाहिए था... खैर.....तुम्हे पढने के लिए मैं कहीं भी आ जाऊंगा, इस बार भी हर बार की तरह जबरदस्त शब्द रचना, और उत्कृष्ट भाव संयोजन....

Shishir Mittal (शिशिर मित्तल) said...

अच्छी कविता है! मार्मिक है. पर यार! तुम रोते बहुत हो! कभी हंस भी दिया करो!
यह विशेष अच्छा लगा -

उसे प्यास लगती है
तो आँखों की ओस
पी लेता है
और भूख लगती है
तो भी
पेट भर रो लेता है।

आलोक साहिल said...

गौरव भाई,देरी के लिए क्षमा चाहूँगा क्योंकि आपका मेल स्पैम में था,तो देख नहीं पाया.
खैर,भाई जी जब भी आपको पढता हूँ तो एक अजीब सी दुनिया में पहुचने का सा अहसास होता है.इस कविता के लिए मेरे जैसा अल्पग्य क्या कहेगा.क्योंकि अब आप अदानी सीमाओं से बहुत उपर उठ चुके हैं,हैरतंगेज
आलोक सिंह "साहिल"

Manjit Thakur said...

सुना है
अरब के रेगिस्तानों में
नन्हे बच्चों को
ऊँटों पर बाँधकर
दौड़ाया जाता है।
....
और
भारत में ही कहीं,
रोटी के लिए बच्चे बेच दिए जाते हैं।
कोई हैवान बच्चों को खाने के लालच में बिस्तर पर ले जाता है
और कोई बिस्तर पर बच्चो की किडनिया खाता है।