याद सब मेहनताने, छोड़े हुए काम और गरीब पूर्वज

याद सब नक्शे, घर, चौराहे
यह भी कि कहां गड्ढ़ा है कहाँ हैं लड़कियाँ
कहाँ रोना चाहिए था और रोया नहीं
कहाँ मारना चाहिए था और रोया
कहाँ नहर में धकेला जा सकता था
कहाँ नंगे होने के सपने आते थे
याद कि कौनसी कंपनी के बल्ब कौनसी दुकान पर नहीं मिलते थे
कितनी छत फाँदकर थी केबल की तार
प्यार होने का चलन था
सूरज कितना कम था, शादियाँ हर इतवार
नदी कोई नहीं वहाँ और मैं सोचता उसे परी
या लता, क्योंकि उसके भी रूप पढ़ाए जाते थे
याद सब इश्तिहार, उनको बदलने वाले सब वार
जैसे लौटना हो बार-बार

पर लौटता नहीं



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5 पाठकों का कहना है :

प्रवीण पाण्डेय said...

सुन्दर कविता।

डॉ .अनुराग said...

खालिस गौरव सोलंकी कविता....

संध्या आर्य said...

कोयले की खदान मे मजदूर
अल्प संख्यक और पीछे छूट चुके सपने भी
हाशिये पर भी जगह नही मिलती
मोहब्बतो मे

सम्वेदनाओ का विस्थापित होना
रोने के बाद हंसना बनानी हो एक आदत
केबल के तार वाली छतो से प्यार होना
एक ख्याल था कि
जुटती है रुहे युगो युगो तक

यह बाजार की दस्तूर है कि
उसे लौटाना बार बार वहाँ !

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

waah yaar! waah!!

सुशीला पुरी said...

स्मृतियों मे डूबी हुई एक सुंदर कविता जो अपने अर्थ -विस्तार मे कई सारी विसंगतियों को समेटे है ।