अवसाद में डूबे आत्मकथ्य - 1

8 नवम्बर के रसरंग (दैनिक भास्कर) में प्रकाशित


मैं एक रेलवे स्टेशन की बेंच पर पड़ा दर्द से छटपटा रहा हूँ। मेरे सिर में भयंकर दर्द है और मैं जीवन में पहली बार भगवान को याद करता हूँ। मुझे पूरा यक़ीन है कि वह कहीं नहीं है। क्या यह देवदास का सा अंत है? एक चाँद सी लड़की आकर मेरे कानों में फुसफुसाती है कि हम दोनों साथ मरेंगे। क्या यह उसका आग्रह है कि मैं उसका गला दबाकर अपने साथ मरने का मौका दूँ? वह बेंच पर मेरे ऊपर लेट गई है। इस तरह, जिस तरह स्टेशन पर कोई नहीं लेटता। उसके घुटने मेरे घुटनों पर, उसकी आँखें मेरी आँखों में। उसके शरीर में बेसन और मिट्टी के तेल की ख़ुशबू बसी हुई है।

- मैं तुम्हारी हूँ।

वह कहती है और जिस क्षण मैं दुनिया का कोई स्वामित्व नहीं चाहता, सुबह के छ: बजे उगते चाँद सी एक लड़की मेरी है। मैं दर्द के कीचड़ में लथपथ हूँ। ऐसा लगता है कि मेरी धमनियों में बहते हुए खून में तेज़ाब मिला हुआ है। एक भीड़ हमारे चारों ओर इकट्ठा हो गई है। उसमें तरह तरह के लोग हैं। वे सब हम दोनों को एक साथ ज़मीन में गाड़ देना चाहते हैं। हम दोनों हाथ बढ़ाकर उनकी मदद करते हैं। किसी को ज़मीन में गाड़ देना क्रोसिन पेन रिलीफ़ जैसा ही तो है। उन लोगों को अपनी अपनी रेलगाड़ी के आ जाने से पहले यह काम पूरा करना है। उनके घरों में इंतज़ार करती पसीने से भीगी हुई औरतें और कार्टून नेटवर्क देखते हुए बच्चे हैं। वे उनसे अनकहा वादा कर आए हैं कि हर महीने उनके लिए मोटी तनख़्वाहें लेकर आएँगे। उनका सारा प्यार और परिवार इसी तनख़्वाह पर टिका है। वे औरतें, जिनके दिमाग इतने ग़ुलाम हैं कि उन्हें बहुत पहले ही मर जाना चाहिए था। वे बच्चे, जो बेवकूफ़ और ख़ुश हैं। भागवत पढ़ते हुए वे बूढ़े, जिन्हें डायबिटीज है और जिनकी जवानी सस्ते जासूसी उपन्यासों के भरोसे गुज़री है।

- तुम हमारी सभ्यता के लिए ख़तरा हो।

भीड़ ने मेरे सामने की लाल दीवार पर सफेद रंग से लिख दिया है। मैं उसके नीचे लिखता हूँ कि मैं किसी सभ्यता को नहीं पहचानता। वह लड़की चुप है। मैं जानता हूँ कि वह अब नहीं बोलेगी। भीड़, जिसका कोई चेहरा और चेहरे पर आँखें नहीं हैं, उसके उभारों को खा जाना चाहती है। भीड़ में स्त्रियाँ भी हैं मगर भीड़ आश्चर्यजनक ढंग से पुरुष है। उन्होंने बहुत सारी किताबें लाकर हमारे ऊपर पटक दी हैं। वे किताबें, जिनके प्रति बेशुमार घृणा के बावज़ूद, परीक्षाओं में पास होने के लिए जिन्हें हमने साथ साथ पढ़ा है। वे किताबें, जिन्हें आत्ममुग्ध आई ए एस अफ़सरों और मोटे प्रोफ़ेसरों ने मिल-जुलकर लिखा है (शायद अगस्त की गीली शामों में एक दूसरे के सरकारी क्वार्टरों में पकौड़ियाँ खाते हुए), जिनके पहले और आख़िरी पन्नों पर दो दो बार उनकी क़ीमत लिखी है और जो महंगी साड़ियाँ खरीदती हुई गुमनाम पत्नियों और अनपढ़ माँओं को समर्पित हैं। जिनकी प्रस्तावना में लेखक अपने आप को इतना अज्ञानी मान रहे हैं कि विनम्र होकर टूट टूट जाते हैं।

- यह है हमारी सभ्यता, हमारा ज्ञान और इतिहास।

वे सब एक स्वर में कहते हैं। वे सब कुछ जानते हैं। उन्हें सब कुछ याद है - तैमूर से लेकर मैकाले तक लेकिन वे बार बार भूल जाते हैं और किताबें उठा उठाकर खोजते हैं। इस हड़बड़ी में आधी किताबें उनके पैरों के नीचे हैं, जिन्हें छूकर वे बार बार उस हाथ को माथे पर लगाते हैं।
फिर वे एक अंतहीन गड्ढ़ा खोदते हैं और तब हमें बुरी तरह से भयभीत कर देने में सफल हो ही जाते हैं। मैं बारी बारी से उन सबके पैर पकड़ता हूँ और माफ़ी माँगता हूँ। इस बीच उन्होंने हम दोनों के अंतरंग क्षणों की कुछ तस्वीरें खींच ली हैं, जिन्हें वे अपने सरकारी टेलीविजन पर साढ़े आठ बजे के समाचारों से पहले के कुछ मिनटों में दिखाएँगे। कुछ पैसे लेकर वे हमें जीने का मूलभूत अधिकार बख़्श देते हैं। वह उठती है और मेरी कायरता पर नाराज़ होकर चली जाती है। उसका नाम क्या था, मुझे याद नहीं। मैं तरस खाने लायक एक भुलक्कड़ बेचैनी में ज़िन्दा हूँ और मर गया हूँ।




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15 पाठकों का कहना है :

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

. . .तो क्या हिन्दी ब्लॉगरी में कॉफ्का का जन्म है यह?

उपर जो 3 विन्दु हैं उनकी जगह अक्षर/शब्द/वाक्य हो सकते थे। लेकिन दोस्त, मेरे साहस ने जवाब दे दिया।
मुझे अपने ज्ञान की सीमा मालूम है।

M VERMA said...

भीड़ में स्त्रियाँ भी हैं मगर भीड़ आश्चर्यजनक ढंग से पुरुष है।
प्रभावित करती है रचना. बाँधे रखने में सक्षम है और अनायास कुछ सोचने को मजबूर करने लगती है.

sangeeta sethi said...

कुछ पैसे लेकर हम जीने का मूलभूत अधिकार खो देते है शायद यही इस दुनिया का सच है | भास्कर के पन्नो पर देखना अच्छा लगा |

PD said...

waiting for second part..

अपूर्व said...

दो दिन पहले सचिन को बैटिंग करते देखा था...और आज आपको पढ़ा....
...फ़र्क तलाशने की कोशिश कर रहा हूँ
......

Asha Joglekar said...

कुछ पैसे लेकर वे हमें जीने का मूलभूत अधिकार बख़्श देते हैं। वह उठती है और मेरी कायरता पर नाराज़ होकर चली जाती है। उसका नाम क्या था, मुझे याद नहीं। मैं तरस खाने लायक एक भुलक्कड़ बेचैनी में ज़िन्दा हूँ और मर गया हूँ।
आपकी लेखन शैली प्रभाव शाली है ।

Anviti said...

the thing tht attract most woh hai aapka hindi mein likhna....aaj ke samay mein hindi mein likhne wale to door padhne wale bhi nahi bache hain!!!

कुश said...

जबरदस्त बुनावट है.. रसरंग में पढ़ चुका हूँ.. एक और भी थी उसमे तो.. वैसे उसमे जो नयी वाली फोटो थी वो मस्त है.. इसे बदलो ना भाई :)

Ambarish said...

isko padhne ke baad koi kuch kahne layak bachega kya... kitna kuch to kah diya aapne... hamare paas kuch chora hi nahi... jee karta hai apoorv ji ka comment copy paste kar dun...

ओम आर्य said...

दर्द के सैलाब मे जब भी डुबता

हूँ,

इंसानी कब्रो मे
दफनाये गये रिश्तो नातो,

ख्वाहिशो-हसरतो की

रुहो के कई कई हाथे और आंखे
भींच लेते है अपने बाजूओ मे
उनका कसाव इतना गहरा होता है,

बिना शक्ल दिखती है दर्द.........


गौरव जी
आपकी रचनाओ को पढ़कर जो मन मे बेचैनी पैदा होती है .......उस बेचैनी से पैदा हुई कुछ पंक्तियाँ आपके सामने है ........

गौरव सोलंकी said...

धन्यवाद ओम आर्य जी। मुझे अच्छा लगा।
कुश और पीडी भाई, ज़ल्दी ही पोस्ट करूँगा दूसरा भाग भी। तीसरा भाग भी...और वह फ़ोटो भी लगा दूँगा लेकिन विडम्बना यह है कि मैं अब तक रसरंग देख ही नहीं पाया, इसलिए मुझे नहीं पता कि उसमें कौनसी फ़ोटो है। दिल्ली वाले रसरंग में यह कहानी नहीं है।
गिरिजेश जी, आपके स्नेह का आभारी हूँ।
अन्विति, मैं उम्मीद करता हूँ कि जब तक हम सब बचे हैं..और जब नहीं भी बचे होंगे, उसके बाद भी हिन्दी पढ़ने वाले बचे रहेंगे।

सागर said...

"किसी को ज़मीन में गाड़ देना क्रोसिन पेन रिलीफ़ जैसा ही तो है। उन लोगों को अपनी अपनी रेलगाड़ी के आ जाने से पहले यह काम पूरा करना है। उनके घरों में इंतज़ार करती पसीने से भीगी हुई औरतें और कार्टून नेटवर्क देखते हुए बच्चे हैं। वे उनसे अनकहा वादा कर आए हैं कि हर महीने उनके लिए मोटी तनख़्वाहें लेकर आएँगे। उनका सारा प्यार और परिवार इसी तनख़्वाह पर टिका है


भीड़, जिसका कोई चेहरा और चेहरे पर आँखें नहीं हैं, उसके उभारों को खा जाना चाहती है। भीड़ में स्त्रियाँ भी हैं मगर भीड़ आश्चर्यजनक ढंग से पुरुष है। उन्होंने बहुत सारी किताबें लाकर हमारे ऊपर पटक दी हैं। वे किताबें, जिनके प्रति बेशुमार घृणा के बावज़ूद, परीक्षाओं में पास होने के लिए जिन्हें हमने साथ साथ पढ़ा है। वे किताबें, जिन्हें आत्ममुग्ध आई ए एस अफ़सरों और मोटे प्रोफ़ेसरों ने मिल-जुलकर लिखा है (शायद अगस्त की गीली शामों में एक दूसरे के सरकारी क्वार्टरों में पकौड़ियाँ खाते हुए), जिनके पहले और आख़िरी पन्नों पर दो दो बार उनकी क़ीमत लिखी है और जो महंगी साड़ियाँ खरीदती हुई गुमनाम पत्नियों और अनपढ़ माँओं को समर्पित हैं। जिनकी प्रस्तावना में लेखक अपने आप को इतना अज्ञानी मान रहे हैं कि विनम्र होकर टूट टूट जाते हैं।"

मन में टूट रही है बात... बस आपने शब्द दे दिया और क्या खूब दिया मानो जिन्दा ही कर दिया...

हमारा कहा मना... शुक्रिया... ऐसे है रेगुलर रहिये.. इसमें हमारा अपना निजी स्वार्थ छुपा है...
अच्छा अब एक बात बताओ... क्या तहलका में पुस्तक समीक्षा और फिल्म समीक्षा तुम्हीं लिखते हो ?

राहुल पाठक said...

bahut hi mast....roj 1 bar tumahra blog kholta hu shayad kuch naya ho ...aur nai post dekh kar vanhi khusi hoti hai jo bachpan me papa ke bajar se laye jhole me kuch fal mithaiyan milne per hoti thi......bahut hi acha likhte ho....

भीड़ में स्त्रियाँ भी हैं मगर भीड़ आश्चर्यजनक ढंग से पुरुष है। aisi panktiya bas tum hi likh sakte ho....dusre tisre bhag ke intjar me....tumhara ghanghor prasansak.....:)

गौरव सोलंकी said...

@ सागर, हाँ जी, मैं ही लिखता हूँ तहलका में।

Pragati said...

I ve read u for the first time. Quite impressive. Loved it! Wanna read more from u now...