तुम्हारे चहचहाने की उम्मीद में, चिड़िया

क्या मिर्च के भी पेड़ होते हैं
जैसे नींद में चलती हैं लड़कियाँ
या बेसुध से होकर हम रात भर करते हैं वही बात
बार बार
कोई अँधेरा चिल्लाता है
कोई खुशी।

हम
दवा के सहारे बाँधते हैं एक और दिन
ननिहाल जाते हुए बच्चे लेते हैं
बसों की खिड़कियों से झाँककर
गन्ने के खेतों में एक और जन्म
मैं रेत की हवा पर लेटकर देखता हूँ
मोतियों के ख़्वाब
और तुम्हारे चहचहाने की उम्मीद में झूम कर हँसता हूँ चिड़िया
मैं शहर बदलता हूँ
और घर-बरसातियाँ
वे बदलते हैं पिता और तुम्हारे मेरे बीच में वे कोई नहीं हैं
मगर हैं, मेरी बात मानो
कि यह शहर, जिसकी गर्म रातों में काँप जाते हैं हम
और सोचते हैं कि
पैसा कमाकर किन्हीं छुट्टियों में स्विट्ज़रलैंड जाएँगे
और भूल जाएँगे ये काले दिन
जब हम सड़कों पर बेकार घूमते थे, चुप रहते थे और रोते नहीं थे
रचते थे माँओं के भ्रम
और कहते थे कि 'कहाँ है डर', 'जो होगा देखा जाएगा'
और हम किसी बर्फ़ के पहाड़ पर खड़े होकर
दूर से देखेंगे यह देश
जैसे यह कभी हुआ ही नहीं था और कहानी थी झूठी
कि वे दिन थे, जब हम मुरझाए हुए फूलों के बीच
बासी रोटियाँ खाकर
अपनी अपनी आज़ादियों से घृणा करते थे
और कुछ लोग खींचते थे हमें दूर दूर, बहुत अपने लोग ,
शादियाँ होती थी,
क्या तुम्हें याद है कि हम हर रात
जब लौटते थे और छूटते थे हमारे हाथ
तब हम सोचते थे कि
कल हम जिस ज़मीन पर मिलेंगे , वह ज़्यादा बड़ी होगी
ज़्यादा आश्वस्त होगी हमारे बीच की ठहरी हुई हवा
और कल जब हम कहेंगे कि
सोना और सुनहरे सपने देखना
तो एक महंगी आईसक्रीम खरीदेंगे।

फिर भी, जब अपने सारे गवाहों के गीता पर हाथ वाले बयानों के बावज़ूद
ईश्वर है अनुपस्थित
और सभी हैं तुम्हें ध्यान से देखते हुए...गुस्सा, अनिद्रा और संदेह है,
कोई है
जिसके हेडफ़ोन पर बजती है तुम्हारी धुन
जो बहुत दूर किनारे पर खड़ा होकर
तुम्हारे इंतज़ार को दुलारता है तुम्हारी माँ की ज़ुबान में
और ठीक जब तुम सोचते हो कि अब अंत है- आह! अलविदा!
वह हाथ हिलाकर चिल्लाता है
प्यार का कोई नाम और डूबकर मुस्कुराता है
और तुम स्विट्ज़रलैंड की किसी सुबह में बैठकर अख़बार पढ़ते हुए की
देखते हो अपनी तस्वीर
और कहते हो कि तुम्हें भरोसा है,
लड़ेंगे
क्योंकि सुबह है।



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6 पाठकों का कहना है :

वेद रत्न शुक्ल said...

"मैं रेत की हवा पर लेटकर देखता हूँ मोतियों के ख़्वाब
और तुम्हारे चहचहाने की उम्मीद में झूम कर हँसता हूँ चिड़िया"
अद्भुत गौरव जी... अद्भुत।
तुम्हारे चहचहाने की उम्मीद में झूमकर हँसता हूँ चिड़िया
तुम्हारे चहचहाने की उम्मीद में झूमकर हँसता हूँ चिड़िया
तुम्हारे चहचहाने की उम्मीद में झूमकर हँसता हूँ चिड़िया

Unknown said...

bahut badi aur vistrit soch k saath saath atyant sookshma drishti hai aapke paas
waah
waah
is umda kavita k liye badhaai !

अनिल कान्त said...

यार तुम अपनी सोच को कविता के द्वारा सार्थक कर देते हो....मुझे तुम्हारी यही बात पसंद है की जो सोचकर लिखते हो वो कविता पढ़ते हुए दिखाई देता है

निर्मला कपिला said...

"मैं रेत की हवा पर लेटकर देखता हूँ मोतियों के ख़्वाब
और तुम्हारे चहचहाने की उम्मीद में झूम कर हँसता हूँ चिड़िया"
लाजवाब पूरी कविता ने बाँधे रखा कहीं कोई ठहराव नहीं शब्दों के झरने मे बहते हुये कब बाहर आ गयी पता ही नहीं चला लाजवाब अद्भुत बधाई

डॉ .अनुराग said...

फिर भी, जब अपने सारे गवाहों के गीता पर हाथ वाले बयानों के बावज़ूद
ईश्वर है अनुपस्थित
और सभी हैं तुम्हें ध्यान से देखते हुए...गुस्सा, अनिद्रा और संदेह है,
कोई है
जिसके हेडफ़ोन पर बजती है तुम्हारी धुन

अद्भुत लिखा है...याद नहीं आता किस दिन तुम्हारी एक कहानी पढ़ी थी किसी ब्लॉग पे ...उस वक़्त टिप्पणी नहीं कर पाया ..लेकिन वो भी ऐसी ही थी ..

सुशीला पुरी said...

कविता बहुत ही सुन्दर है........अच्छे दिनों की प्रतीक्षा , हार्दिक बधाई. हाँ "तद्भव" में 'यहाँ वहाँ कहाँ' के लिए भी बहुत-बहुत बधाई