एकान्त...

अंतहीन सन्नाटा है
जिसमें घड़ी की टिकटिक,
मक्खियों की भिनभिनाहट
और मेरी साँसों के अलावा कुछ भी नहीं।

तो वह कौन है
जो मुझे डराता है बार बार?

इस कमरे के बाहर
कहीं नहीं है दुनिया।
नहीं हैं चाँद, तारे, समुद्र और बम्बई कहीं भी।
मुझे यकीन है।

मैं सोते ही मर जाऊँगा।
कोई नहीं है कहीं
जिसे ख़बर की जा सके,
जिसे किया जा सके सचेत या आश्वस्त।

उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं
कमरे की मक्खियाँ।

और मुनादियों, लाउड स्पीकरों या ऑर्केस्ट्रा में कहीं,
मैं कहीं शोर में मरना चाहता हूं।



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10 पाठकों का कहना है :

निर्मला कपिला said...

sunder abhivyakti hai bhai is sannate se bahar aaeeye

अनिल कान्त said...

आपकी अभिव्यक्ति को सलाम ....अच्छा लिखा है गौरव भाई ....

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

डॉ .अनुराग said...

और मुनादियों, लाउड स्पीकरों या ऑर्केस्ट्रा में कहीं,
मैं कहीं शोर में मरना चाहता हूं।


बहुत अच्छे दोस्त....तुम्हारा लिखे में एक ख़ास बात है

प्रताप नारायण सिंह (Pratap Narayan Singh) said...

बहुत सुंदर कविता ...कभी कभी एकांत स्वयं डरने लगता है...सुंदर अभिव्यक्ति.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

लगता है आप किसी न्यूज़ चैनल का भुतहा सीरियल देख लिए हैं. वैसे डरने की कौनो बात नहीं है. हम हैं न!

Unknown said...

gr kabhi likhna chod diya tumne th bahut kuch kho denge......naa sirf tum....balki main bhi.......................

Anonymous said...

बधाई! बेहतरीन कविता के लिये……

विवेक said...

बेहतरीन...बहुत खूब...सुंदर...वाह...अब मैं ये शब्द नहीं लिखना चाहता...तुम्हारी कविता और मेरे भाव...अब इन शब्दों के बाहर की बात हैं...अब मैं चाहता हूं, तुम समझो, मेरी मौन प्रशंसा।

प्रशांत मलिक said...

क्षणिकाएं nahi likhte aaj kal..
kya baat hai..

Gaurav Ahuja said...

yeh sansar ek mela hain...phir bhi har koi kitna akela hain....sundar kavita...