तुम यूं लिखना कि सुन्दर लगे, अश्लील न लगे

- तुम यूं लिखना कि सुन्दर लगे, अश्लील न लगे।
- अश्लील भी तो सुन्दर हो सकता है।
- हाँ, लेकिन स्वीकार्य नहीं।
- मैं कहाँ स्वीकार्य बनाना चाहता हूं?
- तो क्या बनाना चाहते हो तुम?
- नदी के बीचों बीच ज़मीन...
- यानी?
- यानी पसीने से सनी आस्तीन और उसमें बैठे साँप के खाने भर लायक मोतीचूर...
- तो नदी फिर नदी नहीं रह जाएगी, द्वीप बन जाएगी ना?
- पेट भर जाएगा तो साँप भी कहाँ साँप रह जाएगा?
- और आस्तीन?
- उसमें मेहनत है, इसलिए मैली है।
- द्वीप पर तो जहाज ठहरा करेंगे, कप्तान उतरकर अमरूद तोड़ेगा, लोग फुटबॉल खेला करेंगे और नदी रोया करेगी।
- नदी में नाव चलती है, जहाज नहीं।
- नदी में द्वीप होते हैं?
- हाँ।
- नदी को जो कह दो, उसे होना पड़ता है......द्वीप भी।
- नदी बाढ़ ले आए तो सब कुछ डुबो भी सकती है।
- नदी की आँखें बार-बार सूख जाती हैं।
- मैं तुमसे प्यार करता हूं।
- झूठ...
- सच, तुम्हारी कसम।
- सब सफेद झूठ।
- आस्तीन रोती है।
- और साँप?
- उसे रोना नहीं आता।
- तुम्हें आता है?
- टिटहरी बोल रही है।
- क्या? मुझे तो नहीं सुनता, जबकि मेरे इतना पास है कि बता नहीं सकती।
- तुमने कानों में चूड़ी भर ली है...और बिन्दी भी।
- तुम इतने बेशर्म हो गए हो कि भोले लगने लगे हो।
- मुझे तुम्हारा नाम याद है और फिर भी तुम्हें पुकारता हूं तो कुछ और कहता हूं।
- क्या?
- टिटहरी।
- तो कहते रहो। मैं बुरा नहीं मानूंगी।
- सब बुरा मानते हैं।
- सब बुरे हैं।
- तुम्हारी पलकें मुँदने लगी हैं।
- अख़बार में छपा है क्या?
- अख़बार में तो झूठ छपता है।
- तुम्हारी आस्तीन कहाँ गई?
- अपने कमरे में जाकर सो गई।
- और साँप?
- अब मैं नया अख़बार छापा करूंगा।
- तुम यूं लिखना कि सुन्दर लगे, अश्लील न लगे।
- अश्लील भी तो सुन्दर हो सकता है।
- हाँ, लेकिन स्वीकार्य नहीं......



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17 पाठकों का कहना है :

Sajeev said...

:)

Shiv said...

सुंदर रचना है. कलपना की ऊंची उड़ान.

Gyan Dutt Pandey said...

गदर, कविता लिखना और केलिडोस्कोप घुमाना एक से काम हैं!

डॉ .अनुराग said...

प्रयोग धर्मी कविता ......अच्छा प्रयास .....कुछ जुदा सा .....

azdak said...

ओहो, नींबू सा खट्टा, और बच्‍चे के पिछाड़े सा अश्‍लील, फिर उड़द के दालवाली ऊंचाई.

bhawna....anu said...

तुम यूं लिखते हो कि सुंदर लगता है ....

नीरज गोस्वामी said...

क्या लिखा है भाई....सोचना पड़ेगा....
नीरज

Udan Tashtari said...

जबरदस्त!!

संदीप said...

मित्र मुझे अपनी बात कहनी आपकी यह शैली अच्‍छी लगी, इसी तरह लिखते रहें

महेन said...

भई अपन के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। यह भी नहीं कि यह कविता है या मात्र संवाद और बंधुवर वो तीसरा कब आ रहा है?
शुभम।

आभा said...

गौरव जी आप का प्रयास बहुत सुन्दर है...

गौरव सोलंकी said...

सजीव जी, शिवकुमार जी, ज्ञानदत्त जी, अनुराग जी, प्रमोद जी, भावना जी, समीरलाल जी, संदीप जी और आभा जी, आप सबका आभारी हूं कि आपने एक व्यक्तिगत रचना को सार्वजनिक करने के बाद भी उसका मान कम न होने दिया।
नीरज जी, सब बातें समझने की नहीं होती। महसूस करने की कोशिश करेंगे तो शायद उतनी मुश्किल न हो।
और महेन भाई, आपसे यह उम्मीद ना थी। यह संवाद है जो लिखा जाने के बाद कविता हो गया है और क्या दो लोग प्यार मोहब्बत से जीते हुए अच्छे नहीं लगते? ;)


खैर, तीसरा आ चुका है पर ब्लॉग पर अभी नहीं आया।

महेन said...

रघुवीर सहाय जी का कहा कुछ याद सा आ रहा था, "जहाँ कला ज़्यादा होती है वहाँ जीवन मर जाता है।" मैं इस मामले में थोड़ा ज़्यादा ही कांशियस हूँ। आपकी शैली बांध लेती है मगर कई बार सिर खुजाना पड़ता है कि इसका मतलब क्या है। इसलिये ऐसा कहा। तीसरे का इंतज़ार बहुत बेसब्री से है जी।
शुभम।

Arun Arora said...

चकाचक < धासू

अजित वडनेरकर said...

सही सही।

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

अमेज़िग... अमेज़िग... अमेज़िग...

प्रवीण पाण्डेय said...

इसे कविता कहूँ कि गद्य । झील की गहराई कहूँ या नदी का प्रवाह । वार्ता कहूँ या मन की उद्घोषणा ।
सोलंकी जी, बस अपना मन उड़ेलते रहिये, हम कटोरा लिये बैठे हैं ।