बालकनी की पीठ से पीठ टिकाकर नाखून काटती हुई लड़की के लिए

जिन जिनको ऐतराज़ है
सुबह देर से जगने पर
और जो सूरज चढ़ने से पहले ही
बेवक़्त झिंझोड़कर जगाते हैं किसी को,
उन सबमें आकर बैठ गई है मेरी माँ
उतनी ही सहजता से
जैसे तुम नाखून काटती हुई अक्सर
बालकनी की पीठ से
अपनी पीठ टिकाकर बैठ जाती हो।
तुम्हारे कमरे में खुलती है ना
बालकनी की पीठ?
जैसे मेरे कमरे में खुलता है
जलती अंगीठी का दरवाज़ा।

किसी ने भरी हुई दवात
उड़ेल दी है
तुम्हारी स्कर्ट पर,
तुम्हारा रोना
मेरी शर्ट की जेब से
भीतर को रिस रहा है,
मैंने अंगीठी में फूंक दिया है
खाली दवात के हाथ का चेहरा,
कोई जल रहा है,
मर गई है दवात।

सब देख रहे हैं ‘चन्द्रकांता’।
कोई है दरवाज़े पर,
तुम हो,
तुम माँगती हो चीनी।
तुम माँगती हो चीनी मुझसे
गोल कटोरी देकर,
मैं रख देता हूं उसमें
गोल चाँद की उपमा,
तुम्हारे हाथ की रोटियों के
गोल-गोल सपने,
गोल जंगल में हमारी
गोल झोंपड़ी...
नाराज़ हो जाती हो तुम,
ज़िद करने लगती हो
कि तुम्हें जाना है चीनी लेकर जल्दी।
नहीं,
गोल जंगल में मत रहो पर
तुम मत जाओ।
गोलकुंडा सही, गोलबाज़ार सही, गोलपथ सही,
गोलछा सिनेमा सही...
तुम लौटने लगती हो तेजी से,
मत जाओ,
रुको तुम,
तुम जो भी कहो,
गोल नर्क, गोल कुँआ, गोल मौत,
कुछ भी दो, मगर जाओ नहीं।
तुम बाहर नाली में
फेंक जाती हो
गोल चाँद, गोल रोटियाँ....
सब देख रहे हैं ‘चन्द्रकांता’।

सुना है,
कल पड़ोस में किसी ने कर ली
आत्महत्या।
जानती हो,
जो भी मर रहे हैं
या मरने वाले हैं जल्दी
आज कल परसों में,
दीमकों की तरह
सबको खाए जा रही है
छोड़कर गई प्रेमिकाएँ।
दुनिया के बाकी दुख, दर्द
बकवास हैं,
बहाने हैं सब।



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16 पाठकों का कहना है :

Geet Chaturvedi said...

वाह भई. बढि़या है.

राजीव रंजन प्रसाद said...

:) अच्छी रचना है।

***राजीव रंजन प्रसाद

विश्व दीपक said...

ऎसा लगता है मानो पूरा इतिहास हीं लिख दिया गया हो। रचना टुकड़ों में लिखी प्रतीत होती है। लेकिन सबसे बड़ी बात है कि रचना गौरव की है। इसलिए अपनी खुशबू और मिठास के साथ है।

बधाई स्वीकारो।

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया, गौरव. जारी रहो.

Anonymous said...

उम्दा।

सुजाता said...

आमतौर पर कविताएँ मुझे आकर्षित नही करतीं । पर आपका लिखा भला लगता है ।

PD said...

कोई शब्द नहीं है कहने को मेरे पास..
निःशब्द कर दिया आपने..

DUSHYANT said...

jeeeo ...barkhurdaar..jeeo

Abhishek Ojha said...

बहुत बढ़िया !

Pratyaksha said...

बहुत अच्छा !

अनिल रघुराज said...

बहुत ही उम्दा कविता है। और क्या कहूं। मुझे कुछ कविताएं ही पसंद आती हैं।

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

गौरव, अच्छा लिखते हो

डॉ .अनुराग said...

लम्बी कविताये कहना लगता है आपकी फितरत है पर आपको इसकी महारत भी हासिल हो गई है ....अपने आप मे एक अनूठी कविता है...

sumitkhatri88 said...

ek ati sundar kavita hai
bina vishay ke.

महेन said...

बन्धु जितने बार आपकी कवितायें पढ़ता हुं लगता है उतनी ही बार जीता मरता हुं…

Unknown said...

theek theek lagi.
lagta hai premikai jaan leva hone lagi hai