6 दिसम्बर 1992 : कोई सोए तो कैसे सोए?

पाँच और छ: दिसम्बर के बीच की रात मैं देर तक सो नहीं पाया। कोई कारण नहीं था, लेकिन बिस्तर पर पड़ा पड़ा देर तक कारणों को तलाशता रहा। अचानक तारीख पर आकर दिमाग की सब कोशिशें थम गईं। छ: दिसम्बर आ गई थी। सब कुछ सामान्य था, सिवा इसके कि पन्द्रह साल पहले इसी दिन ने अगले बहुत दिनों तक हज़ारों बेकसूरों की जान बहुत बेरहमी से ले ली थी। अब ऐसे नरभक्षी दिन मैं सो कैसे पाता? बहुत देर तक 6 दिसम्बर, 1992 ही सोचता रहा।
उसी साल अप्रैल में सत्यजित रे भारतीय फ़िल्मों को अपना सब कुछ थमाकर दूसरी दुनिया की ओर रवाना हो गए थे और यह वह समय था जब हिन्दी फ़िल्मों के इतिहास की सबसे निरर्थक फ़िल्में बनाई जा रही थीं, मसलन- आज का गुंडाराज, इंसाफ़ की देवी, मैं हूँ गीता, मैं हूँ शेरनी, इंसान बना शैतान, पुलिस और मुजरिम आदि आदि...। कुछ फ़िल्में ठीक ठाक भी थीं जैसे दीवाना, रोज़ा, ख़ुदा गवाह आदि आदि...। ख़ुदा गवाह अमिताभ बच्चन के ऊपर से हीरो का चोला उतारने के शुरुआती कदमों में से थी।
उसी साल एक मधु सप्रे नाम की लड़की मिस इंडिया बनी थी, जिसने बाद में मिलिंद सोमन के साथ निर्वस्त्र होकर और बहुत बाद में बूम(2003) में हमारी सदी के उन्हीं 'ख़ुदा गवाह' वाले महानायक बच्चन साहब के साथ बहुत 'नाम' कमाया।
लेकिन 6 दिसम्बर से इस सब बकवास का क्या लेना देना?
मैं भी क्या क्या सोचने लगता हूँ, क्या क्या कहने लगता हूं?
नहीं, लेना देना है। वह नंगेपन का साल था और सब दिशाओं में हम अपने आवरण उतार रहे थे, नंगे हो रहे थे या हो चुके थे।
उस साल के क्रिकेट विश्व कप में भारत पहले दौर के आठ मैचों में से पाँच हारकर और एक बरसात की मेहरबानी से ड्रॉ करके बाहर हो गया था।
जहाँ भी ग्लैमर था, सब नंगे हो रहे थे तो वो आखिरी महीने का पहला हफ़्ता कैसे बच सकता था?
मैं उस वक़्त क्या कर रहा था? सोचता हूँ....
सर्दियों की सामान्य सी सुबह थी। देश में तब भी इंटरनेट का प्रयोग करने वाले 1000 लोग थे परंतु तब हम राजस्थान के एक छोटे से गाँव में रहते थे, जहाँ आकाशवाणी और दूरदर्शन अपनी और बिजली की मिलीजुली मर्ज़ी से ख़बरें पहुँचाया करते थे। लेकिन मुझे किसी खबर से क्या फ़र्क पड़ता? मैं तो स्कूल से बचने के बहाने ढूंढ़ता रहता था।
जब अयोध्या में 3 लाख कारसेवक जुटने शुरु हुए होंगे, तब शायद माँ ने मुझे खाने पीने की चीजों के लालच देकर नींद से जगाया होगा। जब आडवाणी और उमा भारती ने उन रामभक्तों को ललकारा होगा, तब शायद मुझे स्कूल के लिए तैयार किया जा रहा होगा। जब रामलला के नारे लगाकर ढाँचे पर पहले वार किए जा रहे होंगे, तब शायद मैं स्कूल की प्रार्थना सभा में खड़ा 'इतनी शक्ति मुझे देना दाता' गा रहा हूंगा। जब सब ध्वस्त किया जा रहा होगा, तब मैं इस टूटे हुए देश की नींव बनने की तैयारी में पहाड़े याद कर रहा हूंगा।
जितना चाहा था, सब तोड़ दिया गया था। आडवाणी कुछ और चाहते तो वो भी तोड़ दिया जाता। अगले बहुत दिनों तक देश भर में हज़ारों लोग मरे, जाने कितने बलात्कार हुए। बांग्लादेश में बेचारे बेकसूर हिन्दू मरे, जिनमें से अधिकांश को पता भी नहीं था कि अयोध्या कहाँ है, आडवाणी कौन है?
बचपन में मेरा एक दोस्त था, मुस्लिम था । उसका नाम शायद 'माजिद' होगा, ऐसा मैं अब अनुमान लगाता हूँ, लेकिन वो अपना नाम हमेशा 'मंजीत' बताया करता था। मैं बड़ा हुआ तो सोचा कि मुस्लिम धर्म में तो ऐसा नाम नहीं रखा जाता। फिर उसे क्या जरूरत थी नाम छिपाने की? या फिर उसका नाम यही था तो उसके पिता ने ऐसा नाम क्यों रखा? उसके भाई का तो कोई ऐसा नाम था ही नहीं, बस सब उसे सोनू-वोनू जैसा कुछ कहकर बुलाते थे।
शायद इस 6 दिसम्बर का ही उन मजबूर से नामों के पीछे कुछ हाथ हो....मैं आज भी यही सोचता हूँ और देर रात तक सो नहीं पाता।
तब से मैं हर दिन अपने भारत को थोड़ा सा जोड़ता हूँ और शाम तक कोई न कोई आडवाणी, बुखारी, मोदी उसे उससे ज्यादा तोड़ चुका होता है। कोई सोए तो कैसे सोए?



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9 पाठकों का कहना है :

शैलेश भारतवासी said...

कम से कम आपके इस आलेख को पढ़ने वाला तो नहीं सो पायेगा।

hasankhandwala60@yahoo.co.in said...

Aapne bilkul sahi likha hai ,agar ab ,Khuda na kare,kabhi Mere Bharat ke tukde hue tau yahi Adwani,Bukhari, Modi,aur togadiya jese log hi zimmedar honge

Sajeev said...

गौरव जी जब तक आप जैसी सोच के नौजवान हैं इस देश में, मैं आशावान हूँ ....

दिवाकर मणि said...

दुःख तो इस बात का भी है कि यही लोग जिस बात को लेकर सत्ता पर काबिज हुए, उसे भूल गए. यह कहना गलत नहीं होगा कि इन्हें तब हीं इन "भावनात्मक" मुद्दों का ध्यान आता है, जब चुनाव सामने हो.

शायद मैं हेय हो जाऊँ लेकिन जिस दिवस को मैं बहुत वर्षों तक "शौर्य-दिवस" मानता रहा था, आज उस दिन की याद से मुझे सिहरन ही होती है. इसके बहुत से कारण है, जिनमें से पहला कारण है कि १९४९ से ९२ के मध्य की स्थिति से भी अधिक उस स्थल को विवादित कर देना. जैसे पहले हिन्दूमानस सुषुप्त था, रहने देते या फिर अपने वचन को पूर्ण कर देते,जिससे आज तक या फिर भविष्य में यह नारा कि "रामलला हम आएँगे, मन्दिर वहीं बनाएँगे" कहना पड़े. लेकिन यदि ऐसा हो जाता तो जिन्ना के भारतीय प्रवक्ताओं की दुकान भी तो बन्द हो जाती. हिन्दू धर्म ऐसा नहीं है कि अन्य सेमेटिक सम्प्रदायों की तरह जीवन भर आपकी दुकान धर्म के नाम पर चलने दे.
दूसरा कारण कि यदि वह घटना नहीं हुई होती तो फिर भारत और भारतेतर दुनिया में हिन्दुओं के ऊपर अनाचार नहीं हुआ होता और फिर तस्लीमा को "लज्जा" लिखकर मुल्लाओं के फतवे से स्वदेश का परित्याग कर भटकना नहीं पड़ता.

गौरव सोलंकी said...

दिवाकर भाई, आप जाने कैसे शौर्य दिवस मना लेते थे उस दिन को, जिस दिन की वज़ह से सैंकड़ों बेकसूर बच्चे अनाथ हुए, सैंकड़ों हिन्दू और मुसलमान औरतों की इज़्ज़त लुटी...
ऐसा मन्दिर और ऐसा मस्ज़िद भाड़ में जाए मेरे लिए तो...

दिवाकर मणि said...

गौरवजी, मानने और मनाने में थोड़ा फर्क है. और जहाँ तक इसे मानने की भी बात है तो मैं मानता हूँ कि केवल अयोध्या का वह ढाँचा ही नहीं अपितु और भी ऐसे स्थल हैं जो हमारे लिए कलंक हैं(हो सकता है किसी के लिए वो गर्वीले स्मारक हों), उनमें से एक भारत की सबसे पुरानी माने जाने वाली कुव्वतुल-इस्लाम मस्जिद भी है, जिसे २९ से अधिक हिन्दू-जैन मन्दिरों को तोड़कर भारत के दिल दिल्ली में बनाया गया है.

महाशय, जिस चीज को आप तराजू के पल्लों पर एक बराबर रखने की कोशिश कर रहे हैं, वो स्वभावतः कहीं से भी समान नहीं हैं. एक शान्तिप्रिय है तो दूसरा तलवार लेकर चलने वाला. वैसे, ज्वालामुखी भी कभी-कभी जग जाता है......लेकिन यह उसका प्राकृतिक स्वभाव नहीं है.

गौरव सोलंकी said...

अपने धर्म के प्रति आँखों पर बंधी जिस अहंकार की पट्टी को मैं ज़िम्मेदारी भरे गर्व में बदलना चाहता हूँ, वैसा मेरे कुछ शब्द नहीं कर पाएँगे।
उस उन्माद में आपने कुछ सहा या खोया होता तो शायद मैं अपनी बात समझाने में सफल हो जाता, पर अच्छा है कि वो आप पर नहीं बीती।

Unknown said...

अच्छा है अतीत की बातें और उनकी विवेचना ईमानदारी पूर्वक करी जाये । भविष्य में शायद ऐसे उन्माद और इस प्रकार के घटनाक्रम की पुनारावृत्ति तो नहीं होगी। आज के बच्चे और कल के युवा को आपकी तरह जागना तो नहीं पडेगा।

दिवाकर मणि said...

आप कहते हैं- उस उन्माद में आपने कुछ सहा या खोया होता तो शायद मैं अपनी बात समझाने में सफल हो जाता, पर अच्छा है कि वो आप पर नहीं बीती।
बन्धुवर !! "उन्माद" शब्द से इस संदर्भ में सहमति नहीं बन पा रही है. अस्तु, व्यक्तिगत रूप से हीं "सहना,खोना, पाना" सब कुछ नहीं होता.
(गौरवजी, मेरी टिप्पणियों से यह न समझें कि मैं आपकी लेखनी का विरोधी हूँ.)